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________________ ३४६ ] छक्खंडागमे सामित्तविचओ [ ३, २७१. पम्म लेस्सिएसु मिच्छत्तदंडओ रइयभंगो || २७१ ॥ एइंदिय-आदाव- थावराणं बंधाभावादो । एत्तिओ चेव भेदो, अण्णो णत्थि । जदि अस्थि सो चिंतिय वत्तव्वो । सुक्कलेस्सिएसु जाव तिथयरे त्ति ओघभंगो ॥ २७२ ॥ एदेण सूइदत्थपरूवणा कीरदे— पंचणाणावरणीय च उदंसणावरणीय पंचंतराइयाणं पुव्वं बंधों पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, सुहुमसांपराइय - खीणकसासु बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । जसकित्ति - उच्चागोदाणं पि एवं चैव वत्तव्वं । णवरि उदयवोच्छेदो एत्थ णत्थि, अजोगिम्ह उदयवच्छेददंसणादो | पंचणाणावरणीय - चउदसणावरणीय - पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो, धुवोदयत्तादो । मिच्छाइट्टि पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठित्ति जसकित्तीए सोदय-परोदओ । उवरि सोदओ चेव बंधो, पडिवक्खुदयाभावादो । मिच्छाइट्टिप्पहुडि जाव संजदासंजदो ति उच्चागोदबंधो सोदय-परोदओ । उवरि सोदओ चेव, णीचागो दुदयाभावादो । पंचणाणावरणीयचउदंसणावरणीय-पंचंतराइयाणं बंधो णिरंतरो, ध्रुवबंधित्तादो । जसकित्तीए मिच्छाइट्टिप्पहुडि पद्मलेश्यावाले जीवोंमें मिथ्यात्वदण्डककी प्ररूपणा नारकियों के समान है || २७१ ॥ क्योंकि, उनके एकेन्द्रिय, आताप और स्थावर के बन्धका अभाव है । केवल इतना ही भेद है, और कुछ भेद नहीं है । यदि कुछ भेद है तो उसे विचारकर कहना चाहिये । शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें तीर्थंकर प्रकृति तक ओघ के समान प्ररूपणा है ।। २७२ ॥ इस सूत्र सूचित अर्थको प्ररूपणा करते हैं- पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तरायका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सूक्ष्मसाम्परायिक और क्षीणकषाय गुणस्थानों में क्रमसे उनके बन्ध और उदयका व्युच्छेद पाया जाता है । यशकीर्ति और उच्चगोत्रके भी इसी प्रकार कहना चाहिये । विशेष इतना है कि उसका उदयव्युच्छेद यहां नहीं है, क्योंकि, अयोगकेवली गुणस्थान में उनका उदय व्युच्छेद देखा जाता है । पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तरायका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवोदयी हैं । मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक यशकीर्तिका स्वोदय - परोदय बन्ध होता है । ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके उदयका अभाव है । मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक उच्चगोत्रका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है । ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां नीचगोत्र के उदयका अभाव है । पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अंतरायका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वे ध्रुवबन्धी हैं । यशकीर्तिका मिथ्यादृष्टि से लेकर प्रमत्तसंयत तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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