SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३, १५५.] जोगमग्गणाए बंधसामित्तं [२२३ तस-बादर-पज्जत-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्तिणिमिण-उच्चागोद पंचतराइयपयडीओ तीहि गुणट्ठाणेहि बज्झमाणियाओ द्वविय परूवणा कीरदे- बंधोदय-वोच्छेदविचारो णत्थि, बंधेणुदएणुभएहि वा विरहिदगुणट्ठाणाणमुवरि अणुवलंभादो। पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रसफास अगुरुवलहुव उवघाद-तस बादर-पज्जत्त पत्तेयसरीर थिराथिर सुहासुह णिमिण-पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो, एत्थ धुवोदयत्तादो । णिद्दा-पयला-सादासाद-बारसकसाय-छणोकसाय-पुरिसवेदाणं बंधो सोदय-परोदओ, उभयथा वि बंधविरोहाभावादो। समचउरससंठाण-सुभगादेज्जजसकित्ति-उच्चागोदाणं बंधो भिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदओ । सासणे सोदओ, अपज्जत्तद्वाए णेरइएसु सासणाणमभावादो । मणुसगइ-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-मणुस्साणुपुग्वि-परघादुस्सास-पसत्थविहायगइ-सुस्सराणं परोदओ बंधो, एत्थ एदासिमुदयविरोहादो । अजसकित्तीए मिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदय बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, इन तीन गुणस्थानवर्ती वैक्रियिककाययोगियोंके द्वारा बध्यमान प्रकृतियोंको स्थापित कर प्ररूपणा करते हैं- इनके बन्ध व उदयके व्युच्छेदका विचार यहां नहीं है, क्योंकि बन्ध, उदय या दोनोंसे रहित गुणस्थान ऊपर पाये नहीं जाते। ___ पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पंचेन्दियजाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां ये ध्रुवोदयी हैं । निद्रा, प्रचला, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, छह नोकषाय और पुरुषवेदका वन्ध स्वोदय परोदय होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी इनके बन्धविरोधका अभाव है। समचतुरस्नसंस्थान, सुभग, आदेय, यशकीर्ति और उच्चगोत्रका बन्ध मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय-परोदय होता है। सासादन गुणस्थानमें स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें नारकियों में सासादन गुणस्थानका अभाव है। मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, मनुष्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगात और सुस्वरका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनके उदयका विरोध है। अयशकीर्तिका मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy