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________________ २२२ छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, १५५. तेदालीस-अट्ठत्तीस-चोत्तीसपच्चया । मणुसगइसंजुत्तं । देव-णेरइया सामी । अद्धाणं मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिहि त्ति। बंधविणासो णत्थि। सादि-अद्धवो बंधो। तित्थयरस्स बंधोदयवोच्छेदसण्णियासो णत्थि, संतासंताणं सण्णियासविरोहादो । परोदओ बंधो, मणुसगई मोत्तूणण्णत्थुदयाभावादो।णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो। पच्चया सुगमा । मणुसगइसंजुत्तं । देव-णेरइया सामी । असंजदसम्मादिट्ठी अद्धाणं । बंधविणासो णत्थि । सादि-अद्भुवो बंधो। वेउब्वियमिस्सकायजोगीणं देवगइभंगों ॥ १५५॥ एदस्स देसामासियअप्पणासुत्तस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा --- पंचणाणावरणीयछदंसणावरणीय-सादासाद-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछं-मणुसगइपंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-वण्णचउक्क-मणुस्साणुपुब्वि-अगुरुवलहुव-उवधाद-परघादुस्सास-पसत्थविहायगइ. सम्यग्दृष्टिके क्रमसे तेतालीस, अड़तीस व चौंतीस प्रत्यय होते हैं। मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । देव व नारकी स्वामी हैं । बन्धाध्वान मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि तक है । बन्धविनाश है नहीं। सादि व अध्रुव बन्ध होता है। - तीर्थकरप्रकृतिके बन्ध व उदयके व्युच्छेदकी सदृशता नहीं है, क्योंकि, सत् और असत्की तुलनाका विरोध है । परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, मनुष्यगतिको छोड़कर दूसरी जगह तीर्थकरप्रकृतिके उदयका अभाव है । निरन्तर वन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे उसके बन्धविश्रामका अभाव है । प्रत्यय सुगम हैं। मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है। देव व नारकी स्वामी हैं। बन्धाध्वान असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान है । बन्धविनाश है नहीं । सादि व अध्रुव बन्ध होता है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंकी प्ररूपणा देवगतिके समान है ॥ १५५ ॥ इस देशामर्शक अर्पणासूत्रका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है- पांच शानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, वर्णादिक चार, मनुष्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, ................ १ अ-आप्रत्योः · देवगईण मंगो' इति पाठः । २ अप्रतौ ' दुगुंछाणं' इति पाठः । ३ प्रतिषु ओरालियसरीर-ओरालियसरीरंगोवंग' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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