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________________ ३, १५४.1 जोगमगणाए बंधसामित्त (२२१ उवरिमगुणेसु तदुभयाणुवलंभादो । णQसयवेद-हुंडसंठाणाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, मिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु तदुभयाभावदंसणादो । सेसासु एसो विचारो णत्थि, उदयाभावादो । मिच्छत्तस्स सोदएण, णqसयवेद-हुंडसंठाणाणं सोदय-परोदओ, अवसेसाणं परोदओ बंधो । मिच्छत्तस्स बंधो गिरंतरो, अवसेसाणं सांतरो । पच्चया सुगमा । णवरि एइंदियजादि-आदाव-थावराणं णqसयवेदपच्चओ अवणेदव्यो, णेरइएसु एदासिं बंधाभावादो । मिच्छत्त-णqसयवेद-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडणाणि तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं, अवसेसाओ पयडीओ तिरिक्खगइसंजुत्तं बझंति । एइंदियजादि-आदाव-थावराणं बंधस्स देवा सामी, अवसेसाणं बंधस्स देव-णेरइया सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । मिच्छत्तस्स चउव्विहा बंधो, अवसेसाणं सादि-अद्धवो । ___ मणुसाउअस्स बंधो उदयादो' पुव्वं पच्छा वा वोच्छिजदि त्तिणत्थि [विचारो], संतासंताण सण्णियासविरोहादो। परोदओ बंधो, वेउब्वियकायजोगम्मि मणुसाउअस्स उदयविरोहादो। णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो । मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणं ....................................... गुणस्थानों में वे दोनों पाये नहीं जाते । नपुंसकवेद और हुण्डसंस्थानका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें क्रमसे उन दोनोंका अभाव देखा जाता है । शेष प्रकृतियों में यह विचार नहीं है, क्योंकि, उनका उदयाभाव है । मिथ्यात्वका स्वोदयसे, नपुंसकवेद और हुण्डसंस्थानका स्वोदयपरोदयसे, तथा शेष प्रकृतियोंका परोदयसे बन्ध होता है। मिथ्यात्वका बन्ध निरन्तर और शेष प्रकृतियोंका सान्तर होता है । प्रत्यय सुगम हैं । विशेष इतना है कि एकेन्द्रियजाति, आताप और स्थावरके प्रत्ययोंमें नपुंसकवेद प्रत्ययको कम करना चाहिये, क्योंकि, नारकियोंमें इनके बन्धका अभाव है । मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त; तथा शेष प्रकृतियां तिर्यग्गतिसे संयुक्त बंधती हैं । एकेन्द्रियजाति, आताप और स्थावरके बन्धके देव स्वामी हैं। शेष प्रकृतियोंके बन्धके देव व नारकी स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । मिथ्यात्वका बन्ध चारों प्रकारका, तथा शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव होता है। मनुष्यायुका बन्ध उदयसे पूर्व या पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, यह विचार यहां नहीं हैं, क्योंकि, सत् (बन्ध) और असत् (उदय) की तुलनाका विरोध है। परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वैक्रियिककाययोगमें मनुष्यायुके उदयका विरोध है । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इसके बन्धविश्रामका अभाव है। मिथ्याष्टि,सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयत १ अप्रतौ ' बंधोदयादो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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