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________________ ३, १७५. ] वेदमग्गणाए बंधसामित्तं [२५१ मिच्छत्तं चउगइसंजुत्तं बंधइ । णउंसयवेद- हुंडठाणाणि तिगइसंजुत्तं, देवगईए सह बंधाभावादो। णिरयाउ-[णिरयगइ-] निरयगइपाओग्गाणुपुव्वीओ णिरयगइसंजुत्तं बंधइ । कुदो ? साभावियादो | अपज्जत्तासंपत्तसेवट्टसंघडणाणि तिरिक्ख - मणुसगइसंजुत्तं, णिरय - देवगईहि सह बंधाभावादो | अवसेसाओ पयडीओ तिरिक्खगइसंजुतं, तत्थ ताणं णियमदंसणादो । मिच्छत्तसय वेद- एइंदियादाव - थावर- हुंडसं ठाण- असंपत्तसे वट्टसंघडणाणं तिगइमिच्छाइड्डी सामी, णिरयगईए इत्थिवेदुदयाभावा दो । णिरयाउ - णिरयगइ - बीइंदिय-तीइंदिय- चउरिंदियजादिणिरयाणुपुव्वि-सुहुम-अपज्जत-साहारणाणं तिरिक्ख - मणुस्सा सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठट्ठाणं च सुगमं । मिच्छत्तस्स चउब्विहो बंध | सेसाणं सादि- अद्धुओ ! अपच्चक्खाणावरणीयमोघं ॥ १७५ ॥ एत्थ वि पुच्वं व परूवेदव्वं । अहवा अपच्चक्खाणावरणीयपहाणो दंडओ अपच्चक्खाणावरणीयमिदि भण्णइ । जहा णिवच कथंब - जंबु-जंवीरवणमिदि । अपच्चक्खाणचउक्क मणुसगइओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग- वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडण - मणुसगइपाओग्गाणु मिथ्यात्वको चारों गतियोंसे संयुक्त बांधता है । नपुंसकवेद और हुण्डसंस्थानको तीन गतियों से संयुक्त बांधता है, क्योंकि, देवगतिके साथ उनके बन्धका अभाव है। नारकायु, [नरकगति] और नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीको नरकगति से संयुक्त बांधता है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है | अपर्याप्त और असंप्राप्तसृपाटिकासंहननको तिर्यग्गति और मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधता है, क्योंकि, नरकगति और देवगतिके साथ इनके बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंको तिर्यग्गति से संयुक्त बांधता है, क्योंकि, तिर्यग्गतिके साथ उनके बन्धका नियम देखा जाता है । मिथ्यात्व नपुंसकवेद, एकेन्द्रिय, आताप, स्थावर, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन के तीन गतियों के मिथ्यादृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, नरकगतिम स्त्रीवेदके उदयका अभाव है । नारकायु, नरकगति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, नारकानुपूर्वी, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण, इन प्रकृतियोंके बन्धके तिर्यच व मनुष्य स्वामी हैं ।वन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । मिथ्यात्वका चारों प्रकारका बन्ध होता है । शेष प्रकृतियों का सादि व अध्रुव बन्ध होता है । अप्रत्याख्यानावरणीय की प्ररूपणा ओघके समान है ॥ १७५ ॥ यहां भी पूर्वके समान प्ररूपणा करना चाहिये । अथवा अप्रत्याख्यानावरणीयप्रधान दण्डकको अप्रत्याख्यानावरणीय शब्द से कहा जाता है। जैसे कि नीम, आम, कदम्ब, जामुन और जम्बीर, इन वृक्षोंकी प्रधानता से इतर वृक्षों से भी युक्त वनों को नीमवन, आमवन, कदम्वचन, जामुनवन और जम्बीरवन शब्दों से कहा जाता है । अप्रत्याख्यानचतुष्क, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभवज्रनाराचशरीरसंहनन और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, इन अप्रत्याख्यानावरणीय संज्ञित प्रकृतियोंकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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