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________________ विषय-परिचय इस खण्डका नाम बन्धस्वामित्व-विचय है, जिसका अर्थ है बन्धके स्वामित्वका विचय अर्थात् विचारणा, मीमांसा या परीक्षा । तदनुसार यहां यह विवेचन किया गया है कि कौनसा कर्मबन्ध किस किस गुणस्थानमें व मार्गणास्थानमें सम्भव है। इस खण्डकी उत्पत्ति इस प्रकार बतलाई गई है - कृति आदि चौबीस अनुयोगद्वारोंमें छठवें अनुयोगद्वारका नाम बन्धन है । बन्धनके चार भेद हैं-बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान। बन्धविधान चार प्रकारका है-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश । इनमें प्रकृतिबन्ध दो प्रकारका है - मूल प्रकृतिबन्ध और उत्तर प्रकृतिबन्ध । सत्प्ररूपणा पृष्ठ १२७ के अनुसार उत्तर प्रकृतिबन्ध भी दो प्रकारका है, एकैकोत्तरप्रकृतिबन्ध और अबोगाढउत्तरप्रकृतिबन्ध । एकैकोत्तरप्रकृतिबन्धके समुत्कीर्तनादि चौवीस अनुयोगद्वार हैं जिनमें बारहवां अनुयोगद्वार बन्धस्वामित्व-विचय है । इस खण्डमें ३२४ सूत्र हैं। प्रथम ४२ सूत्रोंमें ओघ अर्थात् केवल गुणस्थानानुसार प्ररूपण है, और शेष सूत्रोंमें आदेश अर्थात् मार्गणानुसार गुणस्थानोंका प्ररूपण किया गया है। सूत्रोंमें प्रश्नोत्तर क्रमसे केवल यह बतलाया गया है कि कौन कौन प्रकृतियां किन किन गुणस्थानोंमें बन्धको प्राप्त होती हैं। किन्तु धवलाकारने सूत्रोंको देशामर्शक मानकर बन्धव्युच्छेद आदि सम्बन्धी तेवीस प्रश्न और उठाये हैं और उनका समाधान करके बन्धोदयव्युच्छेद, स्वोदय-परोदय, सान्तर-निरन्तर, सप्रत्यय-अप्रत्यय, गति-संयोग व गति-स्वामित्व, बन्धावान, बन्धव्युच्छित्तिस्थान, सादि-अनादि व ध्रुव-अध्रुव बन्धों की व्यवस्थाका स्पष्टीकरण कर दिया है, जिससे विषय सर्वांगपूर्ण प्ररूपित हो गया है। इस प्ररूपणाकी कुछ विशेष व्यवस्थायें इस प्रकार हैं सान्तरबन्धी-एक समय बंधकर द्वितीय समयमें जिनका बन्ध विश्रान्त हो जाता है वे सान्तरबन्धी प्रकृतियां हैं। वे ३४ हैं- असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, मरकगति, एकेन्द्रियादि ४ जाति, समचतुरस्र संस्थानको छोड़ शेष ५ संस्थान, वर्षभनाराचसंहननको छोड़ शेष ५ संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, दुस्वर, अनादेय और अयशकीर्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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