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________________ ३, २५८.] लेस्पामग्गणाए बंधसामित्तं [ ३२७ तदुदयासंभवादो । अवसेसाणं पयडीणं उदयवोच्छेदो णत्थि, वंधवोच्छेदो चेव । सव्वासिं पयडीणं बंधो सोदय-परोदओ, अद्ववोदयत्तादो । थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिचउक्कतिरिक्खाउआणं बंधो णिरंतरो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो। इत्थिवेद-चउसंठाण-चउसंघडणउज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्जाणं बंधो सांतरो, एगसमएण वि बंधुवरमुवलंभादो। तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी-णीचागोदाणं बंधो सांतर-णिरंतरो । कुदो ? सत्तमपुढवीट्ठिदमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु तेउ-वाउकाइयमिच्छाइट्ठीसु च णिरंतरबंधुवलंभादो । पच्चया सुगमा । णवरि तिरिक्खाउअस्स मिच्छाइट्ठिम्हि वेउव्वियमिस्स-कम्मइयपच्चया अवणेदव्या। सासणसम्मादिविम्हि ओरालियमिस्स-वेउव्वियमिस्स-कम्मइयपच्चया अवणेदव्वा । थीगगिद्धितिय अणताणुबंधिच उक्काणं बंधो चउगइसंजुत्तो। इत्थिवेदस्स तिगइसंजुत्तो, णिरयगईए अभावादो। चउसंठाण-चउसंघडणाणं दुगइसंजुत्तो, णिरय-देवगईणमभावादो । अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणं मिच्छाइट्ठीसु तिगइसंजुत्तो, देवगईए असम्भव है। शेष प्रकृतियोंका उदययुच्छेद नहीं है, केवल बन्धव्युच्छेद ही है। सब प्रकृतियोंका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, वे अधुवोदयी हैं । स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुबन्धिचतुष्क और तिर्यगायुका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे उनके बन्धविश्रामका अभाव है । स्त्रीवेद, चार संस्थान, चार संहनन, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेयका बन्ध सान्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे भी उनका बन्धविश्राम पाया जाता है। तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका बन्ध सान्तर-निरन्तर होता है, क्योंकि सप्तम पृथिवीमें स्थित मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि नारकियोंमें तथा तेज व वायु कायिक मिथ्यादृष्टि जीवों में भी उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। प्रत्यय सुगम हैं। विशेष इतना है कि तिर्यगायुके मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको कम करना चाहिये । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंको कम करना चाहिये । स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध चारों गतियोंसे संयुक्त होता है । स्त्रीवेदका बन्ध तीन गतियोंसे संयुक्त होता है, क्योंकि, उसके साथ नरकगतिके बन्धका अभाव है। चार संस्थान और चार संहननका बन्ध दो गतियोंसे संयुक्त होता है, क्योंकि, उनके साथ नरकगति और देवगतिके बन्धका अभाव है।अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका मिथ्यादृष्टियों में तीन गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, देवगतिका वहां अभाव है। १ अ-आप्रलोः ‘पुटवीविहिद ' ' इति पाठः। २ अप्रतौ ' मुस्सर' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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