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________________ ३२८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, २५८. अभावादो । सासणे दुगइसंजुत्तो, णिरय-देवगईणमभावादो । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुवी उज्जोवाणं तिरिक्खगइसंजुत्तो, साभावियादो । थीणगिद्धितियादीणं पयडीणं बंधस्स चउग्गइमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिद्विणो सामी, अविरोहादो । बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । धुवबंधीणं मिच्छाइट्ठिम्हि चउविहो बंधो । सासणे दुविहो, अणाइ-धुवबंधाभावादो। अवसेसाणं बंधो सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो । एगट्ठाणपयडीणं परूवणा कीरदे-मिच्छत्तेइंदिय-बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदियजादिणिरयाणुपुवी-आदाव-थावर सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीराणं बंधोदया समं वोच्छिज्जति, मिच्छाइट्ठिम्हि चेव तदुभयवोच्छेदुवलंभादो । अवसेसाणं पयडीणं उदयवोच्छेदो णत्थि, बंधवोच्छेदो चेव । मि छत्तस्स बंधो सोदओ। णिरयाउ-णिरयगइ-णिरयगइपाओग्गाणुपुवीणं परोदओ, सोदएण बंधविरोहादो। अवसेसाणं पयडीणं बंधो सोदय-परोदओ, उभयहा वि अविरुद्धबंधादो। मिच्छत्त-णिरयाउआणं बंधो णिरंतरो। अवसेसाणं सांतरो, एगससएण वि बंधुवरमदंसणादो । पच्चया सुगमा । णवरि णिरयाउ-णिरयगइ-णिरयाणुपुवीणं वेउव्विय सासादनमें दो गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, वहां नरकगति और देवगतिका अभाव है । निर्यगायु, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योतका तिर्यग्गतिसे संयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । स्त्यानगृद्धित्रय आदि प्रकृतियोंके बन्धके चारों गतियोंके मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, इसमें कोई विरोध नहीं हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । सासादन गुणस्थानमें दो प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अनादि और ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध सादि और अध्रुव होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं। एकस्थान प्रकृतियोंकी प्ररूपणा करते हैं-मिथ्यात्व, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति. नारकानुपूर्वी आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणशरीरका बन्ध व उदय दोनों साथमै व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ही उन दोनोंका व्युच्छेद पाया जाता है। शेष प्रकृतियोंका उदयव्युच्छेद नहीं है, केवल बन्धव्युच्छेद ही है । मिथ्यात्वका बन्ध स्वोदय होता है। नारकायु, नरकगति और नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, अपने उदयके साथ इनके बन्धका विरोध है । शेष प्रकृतियोंका बन्ध स्वोदय-परोदय होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी उनके वन्धमें कोई विरोध नहीं है । मिथ्यात्व और नारकायुका बन्ध निरन्तर होता है । शेष प्रकृतियाका बन्ध सान्तर होता है, क्योंकि, एक समयसे भी उनका अन्धविश्रामका देखा जाता है। प्रत्यय सुगम हैं । विशेष इतना है कि नारकायु, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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