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________________ ३, ४१.] तित्थ यरबंधःकारण परुवणा कारणाणि त्ति णावहारणं कायव्वं । एदस्स णिण्णयट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि - दसणविसुज्झदाए विणयसंपण्णदाए सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए आवासएसु अपरिहीणदाए खण-लवपडिबुज्झणदाए लद्धिसंवेगसंपण्णदाए जधाथामे तधा तवे. साहणं पासुअपरिचागदाए साहूणं समाहिसंधारणाए साहूणं वेज्जावच्चजोगजुत्तदाए अरहंतभत्तीए बहुसुदभत्तीए पवयणभत्तीए पवयणवच्छलदाए पवयणप्पभावणदाए अभिक्खणं अभिक्खणं णाणोवजोगजुत्तदाए इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंधंति ॥४१॥) एदस्स सुत्तस्स अत्था वुच्चदे । तं जहा-दंसणं सम्मइंसणं, तस्स विसुज्झदा दंसण. विसुज्झदा. नीए दंसणविसुज्झदाए जीवा तित्थयरणामगोदं कम्मं बंधंति । तिमूढावोढ-अह. चाहिये । इसके निर्णयार्थ उत्तर सूत्र कहते हैं । दर्शनविशुद्धता, विनयसम्पन्नता, शील-व्रतोंमें निरतिचारता, छह आवश्यकोंमें अपरि - हीनता, क्षण-लवप्रतिबोधनता, लब्धि-संवेगसम्पन्नता, यथाशक्ति तप, साधुओंको प्रासुकपरित्यागता, साधुओंकी समाधिसंधारणा, साधुओंकी वैयावत्ययोगयुक्तता, अरहतभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, प्रवचनवत्सलता, प्रवचनप्रभावनता और अभीक्ष्ण-अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता, इन सोलह कारणोंसे जीव तीर्थंकर नाम-गोत्रकर्मको बांधते हैं ॥४१॥ . इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है--- 'दर्शन' का अर्थ सम्यग्दर्शन है। उसकी विशुद्धताका नाम दर्शनविशुद्धता है। उस दर्शनविशुद्धतासे जीव तीर्थकर नाम-गोत्रकर्मको वांधते हैं। तीन मूढ़ताओंसे रहित और आठ मलोंसे व्यतिरिक्त जो १ अप्रती यथापाये', आप्रतौ यथामे', काप्रती यथाथामे' इति पाठः। २ प्रतिषु ‘साणं' इति पाठः । ३ दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभीषणज्ञानोपयोग-संवेगी शक्तितस्त्याग तपसी साधुसमाधियानृत्य करणभदाचार्य बहु त प्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य । त. सू. ६, २४. अरिहंत सिद्ध पवयण-गुरु-थेर-बहुस्सुए तवस्सी य । वच्छल्लया य एसिं अभिक्खनाणोवआगो य ॥ दंसणत्रिणए आवस्सए य सीलब्बए णिरइयारो। खण-लव-तवच्चियाए वेयावच्चे समाही य ॥ अप्पुन्चनाणगहण सुयभत्ती पवयण पभावणया। एएहि कारणेहिं तित्थयरतं लहइ जीवो।। प्र, सा. १०,३१०-३१२, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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