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८० छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ४१. मलवदिरित्तसम्मइंसणभावो दंसणविसुज्झदा णाम । कथं ताए एक्काए चेव तित्थयरणामकम्मस्स बंधो, सव्वसम्माइट्ठीणं तित्थयरणामकम्मबंधपसंगादो त्ति ? वुच्चदे- ण तिमूढावोढत्तट्ठमलवदिरेगेहि चेव दंसणविसुज्झदा सुद्धणयाहिप्पाएण होदि, किंतु पुघिल्लगुणहि सरूवं लद्धण हिदसम्मइंसणस्स साहणं पासुअपरिच्चागे साहूणं समाहिसंधारणे साहूणं वेज्जाकञ्चजोगे अरहंतभत्तीए बहुसुदभत्तीए पवयणभत्तीए पवयणवच्छलदाए पवयणे पहावणे अभिक्खणं णाणोवजोगजुत्तत्तणे' पयट्टावणं विसुज्झदा णाम । तीए दंसणविसुज्झदाए एक्काए वि तित्थयरकम्मं बंधति ।
अधवा, विणयसंपण्णदाए चेव तित्थयरणामकम्मं बंधति । तं जहा- विणओ तिविहो णाण-दसण-चरित्तविणओ त्ति। तत्थ णाणविणओ णाम अभिक्खणभिक्खणं णाणोवजोगजुत्तदा बहुसुदभत्ती पवयणभत्ती च । दसणविणओ णाम पवयणेसुवइट्ठसव्वभावसद्दहणं तिमूढादो ओसरणमट्टमलच्छद्दणमरहंत-सिद्धभत्ती खण-लवपडिबुज्झणदा' लद्धिसंवेगसंपण्णदा
सम्यग्दर्शन भाव होता है उसे दर्शनविशुद्धता कहते हैं ।
___ शंका-केवल उस एक दर्शनविशुद्धतासे ही तीर्थकर नामकर्मका बन्ध कैसे सम्भव है, क्योंकि, ऐसा माननेसे सव सम्यग्दृष्टियोंके तीर्थकर नामकर्मके बन्धका प्रसंग आवेगा?
समाधान-इस शंकाके उत्तरमें कहते हैं कि शुद्ध नयके अभिप्रायसे तीन मूढ़ताओं और आठ मलोंसे रहित होनेपर ही दर्शनविशुद्धता नहीं होती, किन्तु पूर्वोक्त गणोंसे अपने निजस्वरूपको प्राप्तकर स्थित सम्यग्दर्शनकी साधओंको प्रा परित्याग, साधुओंकी समाधिसंधारणा, साधुओंकी वैयावृत्तिका संयोग, अरहंतभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, प्रवचनवत्सलता, प्रवचनप्रभावना और अभीक्षणशानोपयोगयुक्ततामें प्रवर्तनेका नाम विशुद्धता है । उस एक ही दर्शनविशुद्धतासे जीव तीर्थकर कर्मको बांधते हैं।
अथवा, विनयसम्पन्नतासे ही तीर्थकर नामकर्मको बांधते हैं। वह इस प्रकारसेमानविनय, दर्शनविनय और चारित्रविनयके भेदसे विनय तीन प्रकार है। उनमें बारंबार ज्ञानोपयोगसे युक्त रहनेके साथ बहुश्रुतभाक्ति और प्रवचनभक्तिका नाम ज्ञानविनय है। आगमोपदिष्ट सर्व पदार्थोके श्रद्धानके साथ तीन मूढ़ताओंसे रहित होना, आठ मलोंको छोड़ना, अरहंतभक्ति, सिद्धभक्ति, क्षण लवप्रतिबुद्धता और लब्धिसंवेगसम्पन्नताको दर्शन
१ प्रतिषु · सरूवलद्धण', मप्रतो ' सरूवलद्धण' इति पाठः । २ आ-काप्रत्योः 'जुत्तत्तणेण' इति पाठः । ३ अ-काप्रलोः 'पडिबझणदा', आप्रतौ 'परिबझणदा' इति पाठः ।
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