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________________ ३, ४१.] तित्थयरबंधकारणपरूवणा [८१ च। चरित्तविणओ णाम सीलव्वदेसु णिरदिचारदा आवासएसु अपरिहीणदा जहाथामे तहा तवो च । साहूणं पासुगपरिच्चाओ तेसिं समाहिसंधारण तेसिं वेज्जावच्चजोगजुत्तदा पवयणवछल्लदा च णाण-दंसण-चरित्ताणं पि विणओ, तिरंयणसमूहस्स साहु-पवयण त्ति ववएसादो । तदो विणयसंपण्णदा एक्का वि होदूण सोलसावयवा । तेणेदीए विणयसंपण्णदाए एक्काए वि तित्थयरणामकम्म मणुआ बंधंति । देव-णेरइयाण कधमेसा संभवदि ? ण, तत्थ वि णाणदसणविणयाणं संभवदंसणादो । कधं तिसमूहकजं दोहि चेव सिझदे ? ण एस दोसो, मट्टियाजल-सूरणकंदहितो समुप्पज्जमाणसूरणकंदकुरस्स तकंद-दुद्दिणेहिंतो चेव समुप्पज्जमाणस्सुवलंभादो, दोहि तुरंगेहि कड्डिजमाणसंदणस्स बलवंतणेक्केणेव देवेण विजाहरेण मणुएण वा कड्डिजमाण विनय कहते हैं । शील व्रतोंमें निरतिचारता, आवश्यकोंमें अपरिहीनता अर्थात् परिपूर्णता, और शक्त्यनुसार तपका नाम चारित्रविनय है। साधुओंके लिये प्रासुक आहारादिकका दान, उनकी समाधिका धारण करना, उनकी वैयावृत्तिमें उपयोग लगाना, और प्रवचनघत्सलता, यह ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र तीनोंकी ही विनय है, क्योंकि, रत्नत्रय समूहको साधु व प्रवचन संज्ञा प्राप्त है। इसी कारण चूंकि विनयसम्पन्नता एक भी होकर सोलह अवयवोंसे सहित है, अतः उस एक ही विनयसम्पन्नतासे मनुष्य तीर्थकरनामकर्मको बांधते हैं। शंका-यह विनयसम्पन्नता देव-नारकियोंके कैसे सम्भव है ? समाधान-उक्त शंका ठीक नहीं, क्योंकि, देव-नारकियों में भी शानविनय और दर्शनविनयकी सम्भावना देखी जाती है। शंका–तीनों विनयोंके समूहसे सिद्ध होनेवाला कार्य दोसे ही कैसे सिद्ध हो सकता है ? समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, मट्टी, जल और सूरणकंदसे उत्पन्न होनेयाला सूरणकंदका अकुंर उसके कन्द और दुर्दिन अर्थात् वर्षासे ही उत्पन्न होता हुआ पाया जाता है, अथवा दो घोड़ोंसे खींचा जानेवाला रथ बलवान् एक ही देव, विद्याधर या मनुष्यसे १ अरहंत-सिद्ध-चेइय सुदे य धम्मे य साधुवग्गे य । आयरिय उवज्झाए सुपवयणे दंसणे चावि ॥ भत्ती पूया वण्णजणणं च णासणमवण्णवादस्स । आसादणपरिहारो दंसणविणओ समासेण ॥ म. आ. ४७-४८, २ प्रतिषु · तिरियण ' इति पाठः।। ३ अप्रतौ कहिज्जमाणसेदसणस्स', आप्रती किंदिज्जमाणस्सेदंसणस्स', काप्रती कट्टिज्जमाणस्सेदंसणस्स' इति पाठः । क. बं. ११. Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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