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१५२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[३, ९२. .णिदाणिद्दा--पयलापयला--थीणगिद्धि-अणताणुबंधिकोध-माणमाया-लोभ-इथिवेद-च उसंठाण-चउसंघडण-अप्पसत्थविहायगइ-दुभगदुस्सर-अणादेज्जाणीचागोदाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ९२ ॥
सुगमं । मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी बंधा। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा
एदस्स अत्थो वुच्चदे---- अणंताणुबंधिच उक्कस्स बंधोदया समं वोच्छिज्जंति, सासणम्मि तदुभयवोच्छेददंसणादो । अवसेसाणं बंधोदयवोच्छेदपरिक्खा णत्थि, तासिमेन्थुदयाभावादो। अणंताणुबंधिच उक्स्स सोदय-परोदएण बंधो, अद्धवोदयत्तादो। अवसेसाणं पयडीणं परोदएणेव, एत्थ तासिं बंधेणुदयस्स अवट्ठाणविरोहादो । थीणगिद्धितिय-अणताणुबंधिचउक्काणं णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो । सेसाणं सांतरो, एगसमएण बंधविरामदंसणादो। पच्चयाणं सहस्सारभंगो । सव्वे सव्वाओ पयडीओ मणुसगइसंजुत्तं बंधति । देवा सामी । बंधद्धाणं बंधविणवाणं च सुगम । थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिच उक्काणं मिच्छादिहिस्स
निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, चार संस्थान, चार संहनन, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ९२ ॥
यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक
- इसका अर्थ कहते है- अनन्तानुवन्धिचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, सासादन गुणस्थानमें उन दोनोंका व्युच्छेद देखा जाता है। शेष प्रकृतियोंके वन्धोदयव्युच्छेदकी परीक्षा नहीं है, क्योंकि, यहां उनके उदयका अभाव है । अनन्तानुबन्धिचतुष्कका स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवोदयी हैं। शेष प्रकृतियोंका बन्ध परोदयसे ही होता है, क्योंकि, यहां उनके वन्धके साथ उदयके अवस्थानका विरोध है। स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कका निरन्तर वन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुवबन्धी है। शेष प्रकृतियोंका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे उनका बन्धविश्राम देखा जाता है। प्रत्ययप्ररूपणा सहस्रार देवोंके समान है। उक्त सव देव सब प्रकृतियोंको मनुष्यगतिसे संयुक्त वांधते हैं। देव स्वामी हैं। बन्धाध्वान और वन्धविनष्टस्थान सुगम हैं। स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानु
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