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________________ ३, ९५.] आणदादिदेवेसु बंधसामित्तं [१५३ चउव्विहो बंधो । अण्णत्थ दुविहो, अणादि-धुवाभावत्तादो । सेसाणं पयडीणं सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो। मिच्छत्त-णqसयवेद-हुंडसंठाण-असंपत्तसेवट्टसंघडणणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ९४ ॥ सुगमं । मिच्छाइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ ९५॥ एदस्स अत्थो वुच्चदे - मिच्छत्तस्स बंधोदया समं वोच्छिजंति, मिच्छाइट्ठिम्हि तदुभयाभावदंसणादो । अवसेसाणं बंधोदयवोच्छेदपरिक्खा णत्थि, एत्थेयंतेणेदासिमुदयाभावादो। मिच्छत्तं सोदएण बज्झइ । कुदो ? साभावियादो । अवसेसाओ पयडीओ परोदएण । मिच्छत्तं णिरंतरं बज्झइ, धुवबंधित्तादो । अवसेसाओ सांतरमद्धवबंधित्तादो। पच्चया सहस्सारपच्चयतुल्ला । मणुसगइसंजुत्तं बझंति । देवा सामी । बंधद्धाणं बंधविणट्ठट्ठाणं च सुगमं । मिच्छत्तस्स बंधो ................................. थन्धिचतुष्कका मिथ्याष्टिक चारों प्रकारका वन्ध होता है। अन्यत्र दो प्रकारका बन्ध होता है. क्योंकि. वहां अनादि और ध्रव वन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोका सादि व अध्रुव वन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी प्रकृतियां हैं । मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान और असंप्राप्तमृपाटिकासंहनन नामकर्मोका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ९४ ॥ यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं ॥९५॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- मिथ्यात्वका बन्ध और उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें उन दोनोंका अभाव देखा जाता है। शेष प्रकृतियोंके बन्धोदयव्युच्छेदकी परीक्षा नहीं है, क्योंकि, यहां नियमसे इनके उदयका अभाव है। मिथ्यात्व प्रकृति स्वोदयसे बंधती है। इसका कारण स्वभाव है। शेष प्रकृतियां परोदयसे बंधती हैं । मिथ्यात्व प्रकृति निरन्तर बंधती है, क्योंकि, ध्रुवबन्धी है। शेष प्रकृतियां सान्तर बंधती है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं। प्रत्ययप्ररूपणा सहस्रारदेवोंके प्रत्ययोंके समान है। मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं। देव स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं। मिथ्यात्वका बन्ध चारों प्रकारका होता है, क्योंकि, १ प्रतिषु ' अणादिदेवाभारतादो' इति पाउः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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