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३, २५८.] लेस्सामग्गणाए बंधसामित्तं
[३२१ हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा-समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सर-आदेज-जसकित्ति-अजसकित्ति-उच्चागोदाणं सोदय-परोदओ, उभयहा वि बंधुवलंभादो । मणुसगइदुगोरालियदुग-वज्जरिसहसंघडणाणं मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदओ, उभयहा वि बंधुवलंभादो । सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु परोदओ, सोदयबंधाणमेदेसु गुणट्ठाणेसु अक्कमउत्तिविरोहादो । पंचिंदियजादि-तस-बादर-पज्जत्ताणं मिच्छाइट्ठीसु सोदय-परोदओ, एत्थ पडिवक्खपयडीणं पि उदयसंभवादो । उवरि सोदओ चेव, विगलिंदिय-थावर-सुहुमअपज्जत्तएसु सासणादीणमभावादो । उवघाद-परघादुस्सास-पत्तेयसरीराणं मिच्छादिट्टि-सासणसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदओ। असंजदसम्मादिट्ठीसु सोदय-परोदओ, छट्टपुढवीपच्छायदाणमाज्जत्तकाले असंजदसम्मादिट्ठीणं परोदएण बंधसंभवादो । सम्मामिच्छाइट्ठीसु सोदओ, एदेसिमपज्जत्तदाभावादो।
पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-बारसकसाय-भय-दुगुंछा-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्णचउक्क-अगुरुवलहुव-उवघाद-णिमिण-पंचंतराइयाणं बंधो णिरंतरो, धुवबंधित्तादो । सादासाद
जुगुप्ता, समचतुरस्त्र संस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और उच्चगोत्रका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है. क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी इनका बन्ध पाया जाता है । मनुष्यगतिद्विक, औदारिकद्विक और वज्रर्षभसंहननका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, वहां दोनों प्रकारसे भी बन्ध पाया जाता है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यर गुणस्थानों में उनका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इन गुणस्थानों में उन प्रकृतियों के अपने बन्ध और उदयके एक साथ रहने का विरोध है । पंचेन्द्रिय जाति, स, बादर और पर्याप्तका मिथ्यादृष्टियोंमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां प्रतिपक्ष प्रकृतियों का भी उदय सम्भव है। ऊपर स्वोदय ही वन्ध होता है, क्योंकि, विकलेन्द्रिय, स्थावर, सूक्ष्म और अपर्याप्तकोंमें सासादनादिक गुणस्थानोंका अभाव है। उपघात, परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीरका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। असंयतसम्यग्दृष्टियों में स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, छठी पृथिवीसे
पीछे आये हुए असंयतसम्यग्दृष्टियोंके परोदयसे बन्ध सम्भव है । सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें • स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, उनमें अपर्याप्तताका अभाव है।
पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघ, उपघात, निर्माण और पांच अन्तरायका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, वे ध्रुववन्धी हैं । साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति,
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१ प्रतिषु ' थावरे' इति पाठः । छ..४१.
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