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________________ ३२२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, २५८. हस्स-रदि-अरदि-सोग-थिराथिर-सुहासुह-जसकित्ति-अजसकित्तीणं सांतरो, अद्धवबंधित्तादो । पुरिसवेद-देवगइदुग-वेउव्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंग-समचउरससंठाण-वज्जरिसहसंघडणपसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सर-आदेज्जुच्चागोदाणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु सांतरो । उवरि णिरंतरो, णिप्पडिवक्खबंधादो। मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुवीणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो । कथं णिरंतरो ? ण, आरणच्चुददेवाणं मणुस्सेसुववण्णाणं सुक्कलेस्साविणासेण किण्हलेसाए परिणदाणमंतोमुहुत्तकालं णिरंतरबंधुवलंभादो । सुक्कलेस्साए हिदो पम्मतेउ-काउ-णीललेस्साओ वोलिय कधमक्कमेण किण्हलेस्सापरिणदो होज ? ण, सुक्कलेस्सादो कमेणं काउ-णीललेस्सासु परिणमिय पच्छा किण्णलेस्सापजाएण परिणमणब्भुवगमादो ण च मणुसगइबंधगद्धा काउ-णीललेस्साकालादो थोवा, ततो तस्स बहुत्तुवलंभादो । अधवा मज्झिमसुक्कलेस्सिओ देवो जहा छिण्णाउओ होदण जहण्णसुक्काइणा अपरिणमिय असुहतिलेस्साए' णिवददि शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्तिका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं। पुरुषवेद, देवगतिद्विक, वैक्रियिकशरीर,वैक्रियिकशरीरांगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभसंहनन, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें सान्तर बन्ध होता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां वह प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धसे रहित है। मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध होता है। शंका-निरन्तर वन्ध कैसे होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि मनुष्योंमें उत्पन्न हुए आरण-अच्युत देवोंके शुक्ललेश्याके विनाशसे कृष्णलेश्यामें परिणत होनेपर अन्तर्मुहूर्त काल तक निरन्तर बन्ध पाया जाता है। शंका-शुक्ललेश्यामें स्थित जीव पद्म, तेज, कापोत और नील लेश्याओंको लांघकर कैसे एक साथ कृष्णलेश्यामें परिणत हो सकता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, शुक्ललेश्यासे क्रमशः कापोत और नील लेश्याओंमें परिणमन करके पीछे कृष्णलेश्या पर्यायसे परिणमन स्वीकार किया गया है । और मनुष्यगतिबन्धककाल कापोत और नील लेश्याके कालसे थोड़ा नहीं है, क्योंकि, वह उससे बहुत पाया जाता है । अथवा, मध्यम शुक्ललेश्यावाला देव जिस प्रकार आयुके क्षीण होनेपर जघन्य शुक्ललेश्यादिकसे परिणमन न करके अशुभ तीन लेश्याओंमें गिरता , अ-काप्रयोः ' -मंतोमुहुत्तं कालं' इति पाठः। २ अप्रतौ ' सुक्कलेस्साणं ' इति पाठः। ३ अप्रतौ अपरिणमिह असुहतिलेस्साण' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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