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________________ ३, २२.] ओघेण पुरिसंवेद-कोधसंजलणाणं बंधसामित्तपस्वणा सामित्तं बंधद्धाणं च परविदं । 'अणियट्टिबादरद्धाए सेसे संखेज्जाभागं गंतूण बंधो वोच्छिजदि' त्ति एदेण बंधविणठ्ठाणं परविदं । तं जहा- सेसे अंतरकरणे कदे जा सेसा अणियट्टिअद्धा तम्मि सेसे संखेज्जखंडे कदे तत्थ बहुखंडाणि गंतूणेगखंडावसेसे पुरिसवेद-कोधसंजलणाणं बंधो बोच्छिण्णो त्ति उत्तं होदि । एदे तिण्णि चेव अत्था एदेण परूविदा त्ति देसामासियसुत्तमेदं । तेणेदस्सियरत्थाणं परूवणा कीरदे पुरिसवेद-कोधसंजलणाणं बंधोदया समं वोच्छिज्जंति, पुरिसवेद-कोधसंजलणाणं उदए संतक्खएणुवसमेण वा णडे बंधाणुवलंभादो । संसारावत्थाए सोदएण विणा वि बंधो उवलब्भदि त्ति ण सोदयाविणाभावी एदासिं बंधो त्ति वुत्ते होदु तथा तत्थ, इच्छिजमाणत्तादो। एत्थ पुण पडिवक्खपयडिबंधेण विणा बंधविणटाणे चेव उदयविणासादो एगम्हि काले दोणं विणासो ण विरुज्झदे त्ति । एदासिं दोणं पयडीणं सोदयपरोदएहि बंधो, सोदएण विणा वि बंधोवलंभादो । कोधसंजलणस्स बंधो णिरंतरो, सत्तेत्तालीसधुवबंधपयडीणं मज्झे मूत्रावयवसे गुणस्थानगत बन्धस्वामित्व और बन्धाध्वानका निरूपण किया है । 'अनिवृत्ति यादरकालके शेपमें संख्यात बहुभाग जाकर वन्ध व्युच्छिन्न होता है ' इससे बन्धव्युच्छेदस्थानका निरूपण किया है। वह इस प्रकार है-शेष अर्थात् अन्तरकरण करनेपर जो अवशेष अनिवृत्तिकाल रहता है उस शेष कालके संख्यात खण्ड करनेपर उनमें बहुत खण्ड जाकर एक खण्ड अवशिष्ट रहनेपर पुरुषवेद और संज्वलनक्रोधका बन्ध व्युच्छिन्न होता है, यह उसका अभिप्राय है । ये तीन ही अर्थ इस सूत्र द्वारा कहे गये हैं, अत एव यह देशामर्शक सूत्र है । इसी कारण इसके अन्य अर्थोकी प्ररूपणा की जाती है पुरुषवेद और संज्वलनक्रोध इनके बन्ध व उदय दोनों साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योकि. परुपवेद और संज्वलनकोधके उदयके सत्वक्षयसे या उपशमसे नष्ट होनेपर उन दोनोंका बन्ध नहीं पाया जाता । शंका-संसारावस्थामें स्वोदयके विना भी बन्ध पाया जाता है, अत एव इनका बन्ध स्वोदयका अविनाभावी नहीं है ? समाधान-ऐसी शंका करने पर उत्तर देते हैं कि संसारावस्थामें वैसा भले ही हो, क्योंकि, वहां ऐसा इष्ट है। परन्तु यहांपर प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धके विना बन्धब्युच्छेदस्थानमें ही उदयका व्युच्छेद होनेसे एक कालमें दोनोंका व्युच्छेद विरुद्ध नहीं है। - इन दोनों प्रकृतियोंका स्वोदय-परोदयसे वन्ध होता है, क्योंकि, स्वोदयके विना भी उनका बन्ध पाया जाता है । संज्वलनक्रोधका बन्ध निरन्तर है, क्योंकि, वह सैंतालीस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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