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________________ ३, ७५.] मणुसगदीए बंधसामित्तपरूपणा [१३१ विचारेसु वि ओघादो णत्थि भेदो । जत्थत्थि तं परूवेमो- मिच्छाइट्ठिस्स तेवण्ण पच्चया, सासणे अद्वेत्तालीस, सम्मामिच्छादिट्टिम्हि बाएत्तालीस, असंजदसम्मादिट्टिम्हि चोदालीस, वेउब्वियदुगभावादो। मणुसिणीसु एवं चेव । णवरि सव्वगुणहाणेसु पुरिस-णqसयवेदा, असंजदसम्माइट्टिम्हि ओरालियमिस्स-कम्मइया, अप्पमत्ते आहारदुगं णत्थि । मिच्छाइट्ठी चउगइसंजुत्तं, सासणा तिगइसंजुत्तं, उवरिमा देवगइसंजुत्तं मणुसगइसंजुत्तं च बंधंति । णिद्दाणिदा-पयलापयला-थीणगिद्धि-अणताणुबंधिचउक्क-इत्थिवेद-तिरिक्खाउ-मणुसाउतिरिक्खगइ-मणुसगइ-ओरालियसरीर-चउसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-पंचसंघडण-तिरिक्खगइमणुसगइपाओग्गाणुपुब्वि-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-णीचागोदाणि त्ति एदाओ एत्थ बेट्ठाणपयडीओ। ओघबेट्टाणपयडीहिंतो जेण मणुस्साउ-मणुसदुग-ओरालियदुगवज्जरिसहसंघडणेहि अधियाओ तेण पंचिंदियतिरिक्खबेट्ठाणभंगो त्ति वुत्तं । एत्थ थीणगिद्धितिय-इत्थिवेद-मणुस्साउ-मणुसगइ-ओरालियसरीर-चउसंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-पंचसंघडण-मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-अप्पसत्थविहायगइ-दुभग-दुस्सर-अणा-- देज्जाणं पुव्वं बंधो वोच्छिण्णो पच्छा उदओ। अणंताणुबंधिचउक्कस्स बंधोदया समं वोच्छि तथा सादि आदि बन्धके विचारोंमें भी ओघसे कोई भेद नहीं है। जहां भेद है उसे कहते हैंमिथ्याडष्टिके तिरेपन प्रत्यय, सासादनमें अड़तालीस, सम्यग्मिथ्यादृष्टिमें व्यालीस और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें चवालीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, यहां वैक्रियिक व वैक्रियिकमिश्र प्रत्यय नहीं होते । मनुष्यनियों में इसी प्रकार प्रत्यय होते हैं । विशेष इतना है कि सब गुणस्थानों में पुरुष व नपुंसक वेद, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें औदारिकमिश्र व कार्मण, तथा अप्रमत्त गुणस्थानमें आहारद्विक प्रत्यय नहीं होते। मिथ्यादृष्टि चारों गतियोंसे संयुक्त,सासादनसम्यग्दृष्टि नरकगतिके विना तीन गतियोंसे संयुक्त और उपरिम जीव देवगतिसे संयुक्त व मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं। निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, स्त्रीवेद, तिर्यगायु, मनुष्यायु, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, चार संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, पांच संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, ये यहां द्विस्थानिक प्रकृतियां हैं। ओघद्विस्थान प्रकृतियोंसे चूंकि यहां मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, औदारिकद्विक और वज्रर्षभसंहनन प्रकृतियोंसे अधिक है, अत एव 'पंचेन्द्रिय तिर्यचोंकी द्विस्थान प्रकृतियों के समान प्ररूपणा है' ऐसा कहा है। ___ यहां स्त्यानगृद्धित्रय, स्त्रीवेद, मनुष्यायु, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, चार संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, पांच संहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर और अनादेय, इनका पूर्वमें बन्ध व्युच्छिन्न होता है, पश्चात् उदय । अनन्तानु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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