SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, ७५. ज्जंति, सासणे दोण्णमुच्छेददंसणादो । तिरिक्खाउ-[तिरिक्खगइ-] तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुची-उज्जोवाणं मणुस्सेसुदयाभावादो बंधोदयाणं पुव्वं पच्छा वोच्छेदविचारो णस्थि । णीचागोदस्स पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिण्णो, बंधे सासणम्मि णढे संते पच्छा संजदासंजदम्मि उदयवोच्छेददंसणादो। मणुस्साउ-मणुस्सगईओ सोदएणेव बंधंति । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी-उज्जोवाणं परोदएणेव, मणुस्सेसु एदासिमुदयाभावादो । अवसेसाओ पयडीओ सोदय-परोदएण बझंति, अद्धवोदयत्तादो काओ विग्गहगदीए उदयाभावादो का वि तत्थेवुदयादो। · थीणगिद्धितिय-अणताणुबंधिचउक्काणं णिरंतरो बंधो, धुवबंधित्तादो। [मणुस्साउ-] तिरिक्खाउआणं पि णिरंतरो, एगसमएण बंधुवरमाभावादो। मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंगाणं सांतर णिरंतरो, सव्वत्थ सांतरस्स एदासिं बंधस्स आणदादि ................ बन्धिचतुष्कका बन्ध और उदय दानों साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, सासादन गुणस्थानमें दोनोंका व्युच्छेद देखा जाता है । तिर्यगायु, [तिर्यग्गति], तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योत, इनका चूंकि मनुष्योंमें उदय होता नहीं है अतः इनके बन्ध और उदयके पूर्व या पश्चात् व्युच्छेद होनेका यहां विचार नहीं है । नीचगोत्रका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सासादनमें वन्धके नष्ट हो जानेपर पश्चात् संयतासंयतमें उदयका व्युच्छेद देखा जाता है। . मनुष्यायु और मनुष्यगात स्वोदयसे ही बंधती हैं । तिर्यगायु, तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उद्योत प्रकृतियां परोदयसे ही बंधती हैं, क्योंकि, मनुष्यों में इनके उदयका अभाव है। शेष प्रकृतियां स्वोदय-परोदयसे बंधती हैं, क्योंकि, वे अध्रुवोदयी हैं तथा किन्हींके विग्रहगतिमें उदयका अभाव है तो किन्हींका वहां ही उदय रहता है। स्त्यानगृद्धित्रय और अनन्तानुबन्धिचतुष्कका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रवबन्धी प्रकृतियां हैं । [मनुष्यायु] और तिर्यगायुका भी निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयमें इनके बन्धका विश्राम नहीं होता । मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी; औदारिकशरीर और औदारिकशरीरांगोपांगका सान्तर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इनके बन्धके सर्वत्र सान्तर होनेपर भी आनतादिक देवोंमेंसे मनुष्योंमें उत्पन्न हुए जीवोंके अन्तर्मुहूर्त १ अ-काप्रत्योः । ओरालियसरीर' इत्येतनास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy