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________________ ३, २६०. J लेस्सामग्गणाए बंधसामित्तं [ ३३५ कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस- फास - अगुरुवलहुअ - उवघाद - परघादुस्सास- बादर - पज्जत्त - पत्तेयसरीरणिमिण-पंचंतराइयाणं बंधो णिरंतरो, एत्थ धुवबंधित्तादो । सादावेदणीय-हस्स-रदि-थिर-सुहजसकित्तीणं मिच्छाइट्टि पहुडि जाव पमत्तसंजदा त्ति बंधो सांतरा । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपडणं बंधाभावाद । पंचिंदियजादि - तसणामाणं मिच्छाइट्टिम्हि बंधो सांतर - निरंतरो, तिरिक्खेसु सणक्कुमारादिदेवेसु च णिरंतरबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो । पुरिसवेदस्स मिच्छाइट्टि - सासणसम्मादिट्ठीसु सांतरो, एगसमरण वि बंधुवरमुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिवधाभावादो । पच्चया सुगमा, ओघपच्च एहिंतो विसेसाभावाद । णवरि देवगड - वे उच्चियदुगाणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु ओरालिय मिस्स वे उच्चियदुग-कम्मइयकाय जे गपच्चया अवव्वा, देव- इस अपज्जत्ततिरिक्ख मणुसेसु च एदासिं बंधाभावादो । सम्मामिच्छाइट्टिम्हि वे उव्वियकाय जोगपच्चओ, असंजदसम्मादिडिम्हि वेउव्वियदुगपच्चओ अवणेदव्वो । मिच्छाइ- सासणसम्माइट्ठी सव्वपयडीणं पि ओरालियमिस्सपच्चओ अवणेयव्वा, तिरिक्ख-मणुस वैक्रियिकद्विक, तेजस व कार्मण शरीर, वर्ग, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, निर्माण और पांच अन्तरायका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, यहां ये भुषवन्धी हैं । सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यशकीर्तिका मिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयतों तक सान्तर बन्ध होता है । ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। पंचेन्द्रियजाति और त्रस नामकर्मका मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में सान्तर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, तिर्यचों और सनत्कुमारादि देवों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है । पुरुषवेदका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समय से भी उसका बन्धविश्राम पाया जाता है । ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है । प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंसे कोई विशेषता नहीं है । भेद इतना है कि देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकके मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में औदारिकमिश्र, वैककिद्विक और कार्मण काययोग प्रत्ययोंको कम करना चाहिये, क्योंकि, देव नारकियों तथा अपर्याप्त तिर्यच व मनुष्यों में भी इनके बन्धका अभाव है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें वैक्रियिक काययोग प्रत्यय तथा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में वैफ्रियिक और वैक्रियिकमिश्र प्रत्ययोंको कम करना चाहिये । मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सभी प्रकृतियोंके औदारिकमिश्र प्रत्यय कम करना चाहिये, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jaihelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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