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१६]
छडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, ६.
जाव असंजदसम्माडित्ति सोदएण वि परोदरण वि बंधति, एदेसु दोणं एक्कदरस्सुदयतादो । उवरिमा सोदण चेव बंधति, संजदासंजदप्पहुडिउवरिमेसु गुणट्ठाणेसु अजसकित्ति - उदयाभावाद| | उच्चागोदं मिच्छाइट्टि पहुडि जाव संजदासंजदा त्ति एदे सोदरण परोद एण वि बज्झति, एत्थ दोण्णं गोदाणमुदयसंभावादो । उवरिमा पुण सोदएण चेत्र बंयंति, तत्थ णीचागोदस्सुदयाभावादो । तम्हा' जसकित्ति उच्चागोदाणि सोदय-परोदयगंधा इदि सिद्धं ।
एदासिं बंध किं सांतरा किं णिरंतरो किं सांतर-निरंतरो त्ति पदासिं पुच्छणं पडिवण्णं । एत्थ एदेण अत्थसंबंधेण ताव सांतर - निरंतर -सांतरणिरंतरेण बज्झमाणपयडीओ जाणावेमो | तं जहापंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-मिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुर्गुछा आउच उक्कआहार-तेजा-कम्मइयसरीर- आहारसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रस- फास- अगुरुवलहुअ- उवषाद- णिमिणतित्थयर-पंचंतराइयमिदि एदाओ चडवण्णं पयडीओ निरंतरं बज्झति । तत्थ उवसंहारगाहा - सत्तेताल धुवाओ तित्थयराहार - आउचत्तारि ।
चवणं पयडीओ बज्झति गिरंतरं सव्वा ॥ १४ ॥
लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक स्वोदयसे भी बांधते हैं और परोदयसे भी बांधते हैं, क्योंकि, इन गुणस्थानों में यशकीर्ति और अयशकीर्तिमें से किसी एकका उदय रहता है । असंयतसम्यग्दृष्टिसे ऊपरके गुणस्थानवर्ती जीव सोदयसे ही बांधते हैं, क्योंकि, संयतासंयतसे लेकर उपरिम गुणस्थानों में अयशकीर्तिका उदय नहीं रहता । उच्चगोत्रको मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तकके जीव स्वोदयसे और परोदयसे भी बांधते हैं, क्योंकि, यहां दोनों गोत्रोंका उदय सम्भव है । परन्तु इससे ऊपरके जीव स्वोदयसे ही बांधते हैं, क्योंकि, वहां नीचगोत्रका उदय नहीं रहता । इस कारण यशकीर्ति और उच्चगोत्र प्रकृतियां स्वोदय- परोदय से बंधनेवाली हैं, यह सिद्ध होता है ।
अब उक्त सोलह प्रकृतियोंका बन्ध क्या सान्तर है, क्या निरन्तर है, और क्या सान्तर - निरन्तर है ? ' ये तीन प्रश्न प्राप्त होते हैं। यहां इस अर्थसम्बन्धसे पहिले सान्तर, निरन्तर और सान्तर - निरन्तर रूपसे बंधनेवाली प्रकृतियों का बोध कराते हैं । वह इस प्रकार है - पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा आयु चार, आहारकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, आहारकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुकलघुक, उपघात, निर्माण, तीर्थकर और पांच अन्तराय, ये चौवन प्रकृतियां निरंतर बंधती हैं। यहां उपसंहारगाथा -
सैंतालीस ध्रुवप्रकृतियां, तीर्थकर आहारकशरीर, आहारकशरीरांगोपांग और ये सब चौवन प्रकृतियां निरंतर बंधती हैं ॥ १४ ॥
चार आयु,
९ प्रतिष्षु ' तं जहा ' इति पाठः ।
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२ सत्तेताल धुवा विय तित्थाहाराउगा निरंतरगा । गो . क. ४०४.
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