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जोगमगणाए बंधसामित्तं
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तिरिक्ख- मणुस्सा सामी । बंधद्धाणं बंधविणडाणं च सुगमं । पंचणाणावरणीयछदंसणावरणीय- बारसकसाय -भय- दुर्गुछा - तेजा - कम्मइय-वण्णच उक्क अगुरुवलहुव-उवघादणिमिण-पंचंतराइयाणं मिच्छाइट्टिम्हि' चउच्विहो बंधो। सेसेसु तिविहो, ध्रुवबंधाभावादो । अवसेसाणं सव्वपयडीणं तिसु वि गुणहाणेसु बंधो सादि-अद्भुवो ।
३,१४७.]
णिद्दाणिद्दा - पयलापयला- थीणगिद्धि - अणंताणुबंधिकोध-माणमाया- लोभ- इत्थि वेद-तिरिक्खगड़-मणुसगइ ओरालियसरीर- चउसठाणओरालियसरीर अंगोवंग-पंच संघडण तिरिक्खगड़-मणुसगइपाओग्गाणुपु०वी-उज्जोव - अप्पसत्थविहायगइ - दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज - णीचा गोदाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ १४६ ॥
सुमं ।
मिच्छाइडी सासणसम्माइट्ठी बंधा । एदे बंधा, अवसेसा अवधा ॥ १४७ ॥
तिर्यच व मनुष्य स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं। पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तेजस व कार्मण शरीर, वर्णादिक चार, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में चारों प्रकारका बन्ध होता है । शेष दो गुणस्थानोंमें तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है । शेष सब प्रकृतियोंका बन्ध तीनों ही गुणस्थानों में सादि व अध्रुव होता है ।
निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, चार संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, पांच संहनन, तिर्यग्गति, मनुष्यगतिप्रायेोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीच गोत्रका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ १४६ ॥
यह सूत्र सुगम है।
मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ १४७ ॥
१ प्रतिषु मिच्छाइट्ठीहि ' इति पाठः ।
छ. बं. २७.
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२ प्रतिपु ' आदेज्ज' इति पाठः ।
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