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________________ २०८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, १४५. गइ-सुस्सराणं मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु सांतरो बंधो, असंजदसम्मादिविम्हि णिरंतरो । पंर्चिदिय-तस बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-परघादुस्सासाणं मिच्छाइट्ठीसु सांतर-णिरंतरो बंधो । कधं णिरंतरो ? तिरिक्ख-मणुस्सुप्पण्णसणक्कुमारादिदेवाणं णेरइयाणं च णिरंतरबंधुवलंभादो । सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो। मिच्छाइट्ठिस्स तेदालीस पच्चया, ओघपच्चएसु ओरालियमिस्सकायजोगवदिरित्तबारसजोगाणमभावादो। सासणस्स अद्वतीस, असंजदसम्माइट्ठिस्स बत्तीस पच्चया; तेसिं चेव जोगाणमभावादो असंजदसम्मादिट्ठीसु त्थी-णqसयवेदेहि सह बारसजोगाभावादो । एदाओ सव्वपयडीओ असंजदसम्मादिट्ठिणो देवगइसंजुत्तं बंधंति । मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठिणो उच्चागोदं मणुसगइसंजुत्तं, सेसाओ सव्वपयडीओ तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं बंधंति । देव-णिरयगईओ मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्टिणो किण्ण बंधंति ? ण, अपज्जत्तद्धाए तासिं बंधामावादो। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें सान्तर बन्ध होता है, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें निरन्तर बन्ध होता है। पंचेन्द्रिय, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, परघात और उच्छ्वासका मिथ्यादृष्टियों में सान्तर निरन्तर वन्ध होता है । शंका-निरन्तर बन्ध कैसे होता है ? समाधान-क्योंकि, तिर्यंच व मनुष्यों में उत्पन्न हुए सानत्कुमारादि देवों और नारकियोंके निरन्तर बन्ध पाया जाता है । सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध होता है। मिथ्यादृष्टिके तेतालीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, ओघ प्रत्ययों से उसके औदारिकमिश्र काययोगको छोड़कर अन्य बारह योगोंका अभाव है। सासादनसम्यग्दृष्टिके अड़तीस और असंयतसम्यग्दृष्टिके बत्तीस प्रत्यय होते हैं, क्योंकि, उन्हीं योगोंका यहां भी अभाव है, चूंकि असंयतसम्यग्दृष्टियों में स्त्री और नसक वेदोंके साथ बारह योगोंका अभाव है। इन सब प्रकृतियोंको असंयतसम्यग्दृष्टि देवगतिसे संयुक्त बांधते हैं। मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि उच्चगोत्रको मनुष्यगतिसे संयुक्त, तथा शेष सब प्रकृतियोंको तिर्यग्गति और मनुष्यगतिसे संयुक्त बांधते हैं । शंका-देवगति व नरकगतिको मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि क्यों नहीं बांधते? समाधान नहीं बांधते, क्योंकि, अपर्याप्त कालमें उनका बन्ध नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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