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________________ ३, ३२४. आहारमग्गणाए बंधसामित्तं [ ३९१ अणाहारएसु कम्मइयभंगो ॥ ३२४ ॥ पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-असादावेदणीय-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि[अरदि-सोग-भय-दुगुंडा-मणुसगइ-पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा कम्मइयसरीर समचउरससंठाण ओरालियअंगावंग-वज्जरिसहसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास मणुसगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुअउवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभगसुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्ति-णिमिणुचागोद-पंचतराइयपयडीओ तीहि गुणहाणेहि बज्झमाणियाओ । एदासिमुदयपुवावरकालसंबंधिबंधवोच्छेदपरीक्खा णत्थि, सव्वासिमेत्थ बंधोदयदंसणादो। __पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुवलहुव-थिराथिर-सुहासुह-णिमिण-पंचंतराइयाण सोदओ बंधो, धुवोदयत्तादो । ओरालियसरीरसमचउरससंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-उवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-पत्तेयसरीर-सुस्सराणं परोदओ बंधो, सोदएण एत्थ बंधविरोहादो । णिद्दा-पयलाअसादावेदणीय-बारसकसाय-पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा-सुभग-आदेज्ज-जस अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगियोंके समान प्ररूपणा है ॥ ३२४ ॥ पांच शानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, [अरति],शोक,भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, वर्ण,गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायो. गति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय प्रकृतियां तीन [मिथ्यादृष्टि, सासादन, अविरतसम्यग्दृष्टि] गुणस्थानों द्वारा बध्यमान हैं। इन प्रकृतियोंके उद्यव्युच्छेदके पूर्वापर कालसम्बन्धी बन्धव्युच्छेदकी परीक्षा नहीं है, क्योंकि, सब प्रकृतियोंका यहां बन्ध और उदय देखा जाता है । पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तरायका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवोदयी हैं। औदारिकशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, बज्रर्षभसंहनन, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, प्रत्येकशरीर और सुस्वरका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, स्वोदयसे यहां इनके बन्धका विरोध है। निद्रा, प्रचला, असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति.. , अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, सुभग, आदेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और उच्चगोत्रका स्वोदय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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