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________________ ३५० ] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, ३२३. तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्वी- एइंदिय-बीइंदिय - तीइंदिय - चउरिंदियजादि - आदावुज्जोव - थावरसुहुम-साहारणसरीराणं तिरिक्खगइसंजुत्तो बंधो । वेउब्वियसरीर - वे उब्वियसरीरअंगोवंगाणं देव णिरयगइ संजुत्तो । ओरालियसरीर अंगोवंग-मज्झिमच उसठाण - छसंघडण - अपज्जत्ताणं तिरिक्ख- मणुसगइसंजुत्तो बंधा । णउंसयवेद- हुंड संठाण - अप्पसत्यविहायगइ- दुभग-दुस्सरअणादेज्ज-णीचागोदाणं तिगइसंजुत्तो बंधो, देवगईए अभावादो | उच्चागोदस्स दुगइसंजुत्तो, णिरय-तिरिक्खगईणं अभावादो । अवसेसाणं पयडीगं बंधो चउगसंजुत्तो । तिरिक्खा चेव सामी, अण्णत्थासणीणमभावादो । बंधद्धाणं णत्थि, एक्कम्हि अद्धाविहाद बंधवोच्छेदो वि णत्थि, बंधुवलंभादो । सत्तेतालीसधुवबंधिपयडीणं चउव्विह। बंधो । सेसाणं सादि- अडवो, पडिवक्खबंधाणुवलंभादो' । 1 आहारावादेण आहारएस ओघं ॥ ३२३ ॥ दस्स सुत्तस्स जधा ओघम्मि परूवणा कदा तथा कायव्वा । णवरि सव्वत्थ कम्मझ्यपच्चओ अवणेयव्वो । चदुण्णमाणुपुत्रीणं बंधो परोदओ । उवघादस्स सोदओ । पूर्वी, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, आताप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारणशरीरका तिर्यग्गतिसंयुक्त बन्ध होता है । वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगका देव व नरक गति से संयुक्त बन्ध होता है । औदारिकशरीरांगोपांग, मध्यम चार संस्थान, छह संहनन और अपर्याप्तका तिर्यग्गति व मनुष्यगति से संयुक्त बन्ध होता है । नपुंसकवेद, हुण्डसंस्थान, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्रका तीन गतियोंसे संयुक्त होता है, क्योंकि, इनके साथ देवगतिके बन्धका अभाव है। उच्चगोत्रका दो गतियोंसे सुंयुक्त बन्ध होता है, क्योंकि, उसके साथ नरक और तिर्यगतिका बन्ध नहीं होता । शेष प्रकृतियोंका बन्ध चारों गतियोंसे संयुक्त होता है । तिर्यच जीव ही स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियों में असंज्ञी जीवोंका अभाव है । बन्धाध्वान नहीं है, क्योंकि, एक गुणस्थानमें अध्यानका विरोध है । बन्धव्युच्छेद भी नहीं है, क्योंकि, बन्ध पाया जाता है । सैंतालीस ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका चारों प्रकारका बन्ध होता है । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, इनके प्रतिपक्ष अर्थात् अनादि व ध्रुव बन्ध नहीं पाये जाते हैं । आहारमार्गणानुसार आहारक जीवोंमें ओघके समान प्ररूपणा है ॥ ३२३ ॥ इस सूत्र की जैसे ओघ में प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार यहां भी करना चाहिये । विशेषता केवल इतनी है कि सर्वत्र कार्मण प्रत्ययको कम करना चाहिये । चार आनुपूर्वियों का बन्ध परोदय होता है । उपघातका स्वोदय बन्ध होता है । १ प्रतिषु 'डिमक्खनं धुनमादो ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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