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________________ ३, १०१.) अणुदिसादिदेवेसु बंधसामित्त [१५७ बारसकसाय-हस्स-रदि-सोग-भय-दुगुंछाणं सोदय-परोदएण बंधो, अद्धवोदयत्तादो। परघादुस्सासपसत्थविहायगइ-सुस्सराणं सोदय-परोदएण बंधो, अपज्जत्तकाले उदयाभावे वि बंधुवलंभादो । समचउरससंठाणुवघाद-पत्तेयसरीराणं पि सोदय-परोदएण बंधो, विग्गहगदीए उदयाभावे वि बंधदंसणादो । मणुसाउ-मणुसगइ-ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडणमणुस्सगइपाओग्गाणुपुवी-अजसकित्ति-तित्थयराणं परोदएण बंधो, एत्थेदासिमुदयाभावादो। पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-बारसकसाय-पुरिसवेद-भय-दुगुंछा-मणुसाउ मणुसगइ. पंचिंदियजादि-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-मणुसगइपाओग्गाणुपुब्बि-अगुरुवलहुव-उवधाद-परघाद-उस्सासपसत्थविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-णिमिण-तित्थयरुच्चागोदपंचतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एदासिमेगसमएण बंधुवरमाभावादो । सादासाद-हस्स-रदि-अरदिसोग-थिराथिर-सुहासुह-जसकित्ति-अजसकित्तीणं सांतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमादो। वेदनीय, बारह, कपाय, हास्य, रति, शोक, भय और जुगुप्साका स्वादय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंक, ये अध्रुवोदयी प्रकृतियां हैं । परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वरका स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें उदयका अभाष होनेपर भी इनका बन्ध पाया जाता है। समचतुरस्रसंस्थान, उपघात और प्रत्येकशरीरका भी स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, विग्रहगतिमें उदयके अभावक होनेपर भी बन्ध देखा जाता है । मनुष्यायु, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अयशकीर्ति और तीर्थकरका परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, यहां इनके उदयका अभाव है। पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तावहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर, उञ्चगोत्र और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इनके एक समयसे बन्धविधामका अभाव है। साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशकीर्ति और अयशकीर्ति, इनका सान्तर बन्ध होता है, क्योंक, एक समयसे इनका बन्धविश्राम है। १ अ-आपसोः ' बंधुवरमामावादो 'इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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