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________________ ३, १९०.] कसायमग्गणाए बंधमामित्त [ २७३ ओघतुल्ला, विसेसाभावादो। तं जहा- अणंताणुबंधिचउक्कस्स बंधोदया समं वोच्छिण्णा, सासणम्मि तदुभयाभावदंसणादो। थीणगिद्धितियस्स पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, सासणसम्माइट्टि-पमत्तसंजदेसु कमेण बंधोदयवोच्छे दुवलंभादो । तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइउज्जोवणीचागोदाणमेवं चेव । णवरि संजदासंजदम्मि उदयवोच्छेदो । एवमित्थिवेदस्स वि । णवरि अणियट्टिम्हि तदुच्छेदो । चउसंठाण-अप्पसत्थविहायगइ-दुस्सराणमेवं चेव । णवरि एत्थ उदयवोच्छेदो णस्थि । चउसंघडणाणमेवं चेव । णवरि अप्पमत्तसंजदेसु बिदिय-तदियसंघडणाणमुदयवोच्छेदो। चउत्थ-पंचमाणं णत्थि उदयवोच्छेदो, उवसंतकसाएसु तदुच्छेददंसणादो । तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुब्बी दुभग-अणादेजाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिण्णो, सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु कमेण बंधोदयवोच्छेददंसणादो । अणंताणुबंधिकोधस्स सोदओ बंधो । तिण्हं कसायाणं परोदओ, तेसिमेत्युदयाभावादो। अवसेसपयडीण सोदय-परोदओ, उभयहा वि बंधविरोहाभावादो । इत्थिवेद-चउसंठाण-चउ ओघसे इनमें कोई भेद नहीं है । वह इस प्रकार है- अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों साथमें व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, सासादन गुणस्थानमें उन दोनोंका अभाव देखा जाता है । स्त्यानगृद्धित्रयका पूर्वमें वन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टि और प्रमत्तसंयत गुणस्थानोंमें क्रमसे बन्ध व उदयका व्युच्छेद पाया जाता है । तिर्यगायु, तिर्यग्गति, उद्योत और नीचगोत्रकी भी प्ररूपणा इसी प्रकार ही है। विशेषता केवल इतनी है कि संयतासंयत गुणस्थानमें उनका उदयव्युच्छेद होता है । इसी प्रकार स्त्रीवेदकी भी प्ररूपणा है । विशेष इतना है कि अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें उसके उदयका व्युच्छेद होता है। चार संस्थान, अप्रशस्तविहायोगति और दुस्वरकी प्ररूपणा भी इसी प्रकार ही है। विशेष इतना है कि यहां उनका उदयव्युच्छेद नहीं है। चार संहननोंकी प्ररूपणा भी इसी प्रकार ही है। विशेष इतना है कि अप्रमत्तसंयतों में द्वितीय और तृतीय संहननका उदयव्युच्छेद होता है । चतुर्थ और पंचम संहननका उदयव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, उपशान्तकषायों में उनके उदयका व्युच्छेद देखा जाता है । तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, दुर्भग और अनादेयका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमसे उनके बन्ध व उदयका व्युच्छेद देखा जाता है। __ अनन्तानुबन्धिक्रोधका स्वोदय बन्ध होता है। तीन कषायोका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां उनके उदयका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका खोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी उनके बन्धका कोई विरोध नहीं है। स्त्रीवेद, चार संस्थान, चार संहनन, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, छ.बं. ३५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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