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________________ २७२ ] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, १९०. गोदं मिच्छाइटि-सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो देव-मणुसगइसंजुत्तं बंधंति, अण्णगईहि बंधविरोहादो। उवरिमा देवगइसंजुत्तमणियट्टिणो अगइसंजुत्तं बंधति । चउगइमिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठिणो सामी । दुगइसंजदासंजदा। अवसेसा मणुसा, अण्णत्थ तेसिमणुवलंभादो। बंधद्धाणं सुगमं । बंधविणासा णत्थि, बंधुवलंभादो । धुवबंधीणं मिच्छाइट्ठिम्हि चउव्विहो बंधो । उवरिमगुणेसु तिविहो, धुवत्ताभावादो । अवसेसाणं पयडीणं सादि-अद्भुवो', अद्धवबंधित्तादो । बेट्टाणी ओघं ॥ १९० ॥ थीणगिद्धितिय-अणंताणुबंधिच उक्क-इत्थिवेद-तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-चउसंठाणचउसंघडण-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वि-उज्जोव अप्पसत्थविहायगइ-दुभग दुस्सर-अणादेज्जणीचागोदाणं बेट्टाणियसण्णा, दोसु गुणट्ठाणसु चिटुंति त्ति उप्पत्तीदो । एदासिं परूवणा उच्चगोत्रको मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त बांधते हैं, क्योंकि, अन्य गतियोंके साथ उसके बन्धका विरोध है । उपरिम जीव देवगतिसे संयुक्त, तथा अनिवृत्तिकरणगुणस्थानवर्ती अगतिसंयुक्त बांधते हैं। चारों गतियोंके मिथ्याष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं। दो गतियोंके संयतासंयत स्वामी हैं । शेष गुणस्थानवी मनुष्य ही स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियों में वे गुणस्थान पाये नहीं जाते । बन्धाध्वान सुगम है । बन्धविनाश है नहीं, क्योंकि, उनका बन्ध पाया जाता है । ध्रुवबन्धी प्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है । उपरिम गुणस्थानों में तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुववन्धी हैं। द्विस्थानिक प्रकृतियोंकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ १९० ॥ स्त्यानगृद्धित्रय, अनन्तानुवन्धिचतुष्क, स्त्रीवेद, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, इन प्रकृतियोंकी द्विस्थानिक संज्ञा है, क्योंकि, 'जो दो गुणस्थानों में रहें वे द्विस्थानिक हैं ' ऐसी व्युत्पत्ति है । इनकी प्ररूपणा ओघके समान है, क्योंकि, १ प्रतिषु ' दुगइसंजदा' इति पाठः । २ प्रतिषु 'सादि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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