SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [२७९ ३, २०६.] णाणमग्गणाए बंधसामित्तं उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था खीणकसायवीदरागछदुमत्था सजोगिकेवली बंधा । सजोगिकेवलिअद्धाए चरिमसमयं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २०६॥ एदस्स अत्थो। तं जहा - सादावेदणीयस्स' पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिण्णो, सजोगि-अजोगिकेवलीसु कमेण बंधोदयवोच्छेददंसणादो । सोदय-परोदओ, उभयहा वि बंधाविरोहादो। णिरंतरो, पडिवक्खपयडीए बंधाभावादो। उवसंत-खीणकसाएसु णव जोगपञ्चया । सजोगीसु सत्त । अगइसंजुत्तो बंधो । मणुसा सामी । सादि-अद्धवो बंधो, अद्धवबंधित्तादो । णाणाणुवादेण मदिअण्णाणि-सुदअण्णाणि-विभंगणाणीसु पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-सादासाद-सोलसकसाय-अट्ठणोकसायतिरिक्खाउ-मणुसाउ-देवाउ-तिरिक्खगइ-मणुसगइ-देवगइ-पंचिंदियजादि-ओरालिय वेउव्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-पंचसंठाण-ओरालिय उपशान्तकषाय वीतरागछद्मस्थ, क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ और सयोगकेवली बन्धक हैं । सयोगकेवलिकालके अन्तिम समयको जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २०६ ॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- सातावेदनीयका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सयोगकेवली और अयोगकेवली गुणस्थानोंमें क्रमसे उसके बन्ध और उदयका व्युच्छेद देखा जाता है। उसका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी उसके बन्धका विरोध नहीं है। निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, उसकी प्रतिपक्ष प्रकृतिका यहां अभाव है। उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय जीवोंमें नौ योग प्रत्यय तथा सयोगी जिनों में सात हैं । अगतिसंयुक्त बन्ध होता है । मनुष्य स्वामी हैं। सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वह अध्रुवबन्धी है। ज्ञानमार्गणाके अनुसार मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी और विभंगज्ञानी जीवोंमें पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, सोलह कषाय, आठ नोकषाय, तिर्यगायु, मनुष्यायु, देवायु, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, पांच संस्थान, औदारिक व वैक्रियिक शरीरांगोपांग, पांच १ अप्रतौ सादासादवेदणीयस्स', आप्रतौ ' सादासादयस्स' इति पाठः । २ प्रतिषु — बंधविरोहादो' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy