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________________ २७८ ] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, २०१. हस्स-रदि जाव तित्थयरे ति ओघं ॥ २०१॥ सुगममेदं । लोभकसाईसु पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-सादावेदणीयजसकित्ति-उच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥२०२॥ सुगमं । मिच्छाइटिप्पहुडि जाव सुहुमसांपराइयउवसमा खवा बंधा । एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ २०३ ॥ एदं सुगमं । सेसं जाव तित्थयरे त्ति ओघं ॥ २०४ ॥ सुगमं । अकसाईसु सादावेदणीयस्स को बंधो को अबंधो ? ॥१०५॥ सुगमं । हास्य व रतिसे लेकर तीर्थकर प्रकृति तक ओघके समान प्ररूपणा है ॥ २०१॥ यह सूत्र सुगम है। लोभकषायी जीवोंमें पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥२०२॥ यह सूत्र सुगम है। मिथ्यादृष्टिसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायिक उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक कोई नहीं हैं ॥ २०३ ॥ यह सूत्र सुगम है। तीर्थकर प्रकृति तक शेष प्रकृतियोंकी प्ररूपणा ओघके समान है ॥ २०४ ।। यह सूत्र सुगम है। अकषायी जीवोंमें सातावेदनीयका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥२०॥ यह सूत्र सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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