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________________ १, ३२५.] आहारमग्गणाए बंधसामित्तं असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो । पंचिंदियजादि-ओरालियसरीरअंगोवंग-परघादुस्सास-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीराणं मिच्छाइट्ठिम्हि सांतर-णिरंतरो, सणक्कुमारादिदेव-णेरइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो । विग्गहगदीए कषं णिरंतरदा ? ण, सत्तिं पडुच्च णिरंतरत्तुवदेसादो । सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीसु णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो । एवमोरालियसरीरस्स वि वत्तव्वं । मिच्छाइट्ठिस्स तेदालीस, सासणस्स अट्टत्तीस, असंजदसम्मादिहिस्स तेत्तीस पच्चया । मणुसगइ-मणुसगइपाओग्गाणुपुव्वीणं बंधो मणुसगइसंजुत्तो । ओरालियसरीर-ओरालियसरीरंगोवंगाणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्ता । असंजदसम्मादिट्ठीसु मणुसगइसंजुत्तो । एवं वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणस्स वि वत्तव्वं । उच्चागोदस्स मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु मणुसगइसंजुत्तो, असंजदसम्मादिट्ठीसु देव-मणुसगइसंजुत्तो । सेसाणं पयडीणं बंधो मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीसु तिरिक्खमणुसगइसंजुत्तो, एदेसिमपज्जत्तकाले देव-णिरयगईणं बंधाभावादो। असंजदसम्मादिट्ठीसु देव असंयतसम्यग्दृष्टियों में निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, उनमें प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। पंचेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीरांगोपांग, परघात, उच्छवास, त्रस, बादर,पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, सनत्कुमारादि देव और नारकियोंमें उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। शंका-विग्रहगतिमें बन्धकी निरन्तरता कैसे सम्भव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, शक्तिकी अपेक्षा उसकी निरन्तरताका उपदेश है। सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियोंमें उनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, उनके प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। इसी प्रकार औदारिकशरीरके भी कहना चाहिये। मिथ्यादृष्टिके तेतालीस, सासादनसम्यग्दृष्टिके अड़तीस, और असंयतसम्यग्दृष्टिके तेतीस प्रत्यय हैं। मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका बन्ध मनुष्यगतिसंयुक्त ता है। औदारिकशरीर और औदारिकशरीरांगोपांगका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्य ग्दृष्टियोंमें तिर्यग्गति व मनुष्यगतिसे संयुक्त बन्ध होता है । असंयतसम्यग्दृष्टियोंमें मनुष्यगतिसंयुक्त बन्ध होता है। इसी प्रकार वज्रर्षभवज्रनाराचशरीरसंहननके भी कहना चाहिये। उच्चगोत्रका मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियों में मनुष्यगतिसंयुक्त, तथा असंयतसम्यग्दृष्टियों में देव व मनुष्य गतिसे संयुक्त बन्ध होता है । शेष प्रकृतियोंका बन्ध मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें तिर्यग्गति और मनुष्यगतिसे संयुक्त होता है, क्योंकि, इनके अपर्याप्तकालमें देव व नरक गतिके बन्धका अभाव है । असंयतसम्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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