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३, ८०. ]
देवदीए णिद्दाणिद्दादणं बंधसामित्त
णिद्दाणिद्दा- पयलापयला थीणगिद्धि - अनंताणुबंधिकोध-माणमाया- लोभ- इत्थवेद तिरिक्खाउ - तिरिक्खगइ - चउसंठाण चउसंघडण - तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वी उज्जोव अप्पसत्थविहायगइ- दुभग-दुस्सरअणादेज्ज-णीचा गोदाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ७९ ॥
सुगमं ।
मिच्छाइट्टी सासणसम्माइडी बंधा । एदे बंधा - अवसेसा अबंधा ॥ ८० ॥
अताणुबंधिच उक्कस्स बंधोदया समं वोच्छिज्र्ज्जति, सासणम्मि उभयाभावदसाणादो । इत्थवेदस्स पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, सासणम्मि वोच्छिण्णबंधित्थिवेदस्स असंजदसम्मादिट्टिम्हि उदयवोच्छेददंसणादो । अथवा, देवगदीए बंधो चेव वोच्छिज्जदि गोदओ, तदुदयविरे हिगुणाणाभावादो । एदमत्थपदमण्णत्थ' वि जोजेयव्वं । श्रीणगिद्धितिय -
निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यगायु, तिर्यग्गति, चार संस्थान, चार संहनन, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और नीचगोत्र, इनका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ७९ ॥
यह सूत्र सुगम है |
मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं ॥ ८० ॥
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अनन्तानुबन्धिचतुष्कका बन्ध और उदय दोनों एक साथ व्युच्छिन्न होते हैं, क्योंकि, सासादन गुणस्थान में उन दोनोंका अभाव देखा जाता है । स्त्रीवेदका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, सासादन गुणस्थान में स्त्रीवेदके बन्धके व्युच्छिन्न हो जाने पर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उदयका व्युच्छेद देखा जाता है । अथवा, देवगतिमें बन्ध ही व्युच्छिन्न होता है, उदय नहीं; क्योंकि, देवगतिमें उक्त प्रकृतियोंके उदयके विरोधी गुणस्थानोंका अभाव है। इस अर्थपदकी अन्यत्र भी योजना करना चाहिये ।
१ प्रतिषु ' उभयमाव ' इति पाठः ।
६ प्रतिषु एदमत्थपदमणत्थ ' इति पाठः ।
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२ प्रतिषु ' -सम्मादिट्ठीहि ' इति पाठः ।
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