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छक्खंडागमे बंबसामित्तविचओ
[ ३, १३९.
मुदयाभावो', तत्थ तदणुवलंभादो | ण ते उकाइएसु तदभावो, पच्चखेणुवलंभमाणत्तादो ? एत्थ परिहारो बुच्चदे - ण ताव तेउकाइएस आदाओं अस्थि, उण्हष्पहार तत्थाभावादो । उम्हि वि उण्हत्तमुवलंभइ च्चे उवलब्भउ णाम, [ण ] तस्स आदावववएसो, किंतु तेजासण्णा; “मूलोष्णवती प्रभा तेजः, सर्वांगव्याप्युष्णवती प्रभा आतापः, उष्णरहिता प्रभोद्योतः ", " इति तिन्हं भेदोवलंभादो । तम्हा ण उन्जोवो वि तत्थत्थि, मूलुण्हुज्जोवस्स तेजववसादो । एत्तिओ चेव भेदो, ण अण्णत्थ कत्थ वि । णवरि सव्वासि पयडी तिरिक्सगइसंजुत्तो बंधो ।
तसकाइय-तसकाइयपज्जत्ताणमोघं णेदव्वं जाव तित्थयरे ति
॥ १३९ ॥
एवं सामासिवप्पणासुत्तं, तेणेदेण सूइदत्थपरूवणा कीरदे -- बीइंदिय-तीइंदिय
उनमें वह पाया नहीं जाता । किन्तु तेजकायिक जीवोंमें उन दोनों का उदयाभाव सम्भव नहीं है, क्योंकि, यहां उनका उदद्य प्रत्यक्ष से देखा जाता है ।
समाधान - यहां उक्त शंकाका परिहार कहते हैं- तेजकायिक जीवोंमें आतापका उदय नहीं है, क्योंकि, वहां उष्ण प्रभाका अभाव है ।
शंका - तेजकायमें भी तो उष्णता पायी जाती है, फिर वहां आतापका उदय क्यों न माना जाय ?
समाधान — तेजकाय में भले ही उष्णता पायी जाती हो, परन्तु उसका नाम आताप [ नहीं ] हो सकता, किन्तु 'तेज' संज्ञा होगी; क्योंकि, मूलमें उष्णवती प्रभाका नाम तेज, सर्वागव्यापी उष्णवर्ती प्रभाका नाम आताप, और उष्णता रहित प्रभाका नाम उद्योत है, इस प्रकार तीनोंके भेद पाया जाता है ।
इसी कारण वहां उद्योत भी नहीं है, क्योंकि, मूलोष्ण उद्योतका नाम तेज है [ न कि उद्योत ] | केवल इतना ही भेद है, और कहीं भी कुछ मेद नहीं है । विशेष इतना है कि सब प्रकृतियोंका तिर्यग्गतिसे संयुक्त बन्ध होता है ।
कायिक पर्याप्तोंके तीर्थंकर प्रकृति तक ओघ के समान
कायिक और ले जाना चाहिये ॥ १३९ ॥
यह देशामर्शक अर्पणासूत्र है, इसलिये इससे सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते
१ प्रतिषु ' - मुदयाभावादो' इति पाठः ।
२ मूलण्हपहा अग्गी आदात्रो होदि उन्हसहियपहा । आइच्चे तेरिच्छे उण्हूणपहा हु उज्जोओ ॥ गो. क्र. ३३० ३ अ - आमत्योः ' -gप्पण्णामुत्तं ' इति पाठः ।
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