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________________ ३, २८३.] सम्मत्तमागणाए बंधसामित्तं एगसमएण बंधुवरमाभावादो । सादावेदणीय-हस्स-रदि-थिर-सुभ-जसकित्तीणं असंजदसम्मादिट्ठिप्पहुडि जाव पमत्तसंजदो त्ति बंधो सांतरो । उवरि णिरंतरो, पडिवक्खपयडिबंधाभावादो। पच्चया सुगमा, ओघपञ्चएहितो विसेसाभावादो । देवगइ-वेउव्वियदुगाणं देवगइसंजुत्तो । सेसाणं पयडीणं असंजदसम्मादिट्ठीसु बंधो दुगइसंजुत्तो । उवरिमेसु देवगइसंजुत्तो । देवगइ-वेउव्वियदुगाणं तिरिक्ख-मणुसअसंजदसम्मादिहि-संजदासजदा सामी । तित्थयरस्स तिगइअसंजदसम्मादिहिणो सामी, तिरिक्खगईए अभावादो । उवरिमा मणुसा चेव, तेसिमण्णत्थाभावादो । सेसाणं पयडीणं चउगइअसंजदसम्मादिट्ठिणो दुगइसंजदासजदा मणुसगइसंजदा च सामी। बंधद्धाणं सुगमं । बंधवोच्छेदो णस्थि, 'अबंधा णत्थि' त्ति वयणादो। धुवबंधीणं तिविहो बंधो, धुवाभावादो । सेसाणं सादि-अदुवो, अदुवबंधित्तादो। __ असादावेदणीय-अरदि-सोग-अथिर-असुह-जसकित्तिणामाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २८३ ॥ एत्थ पण्णभंगा जाणिय वत्तव्वा । एक समयसे इनके बन्धविश्रामका अभाव है। सातावेदनीय, हास्य, रति, स्थिर, शुभ और यशकीर्तिका असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर प्रमत्तसंयत तक सान्तर बन्ध होता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। प्रत्यय सुगम हैं, क्योंकि, ओघप्रत्ययोंसे कोई विशेषता नहीं है । देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकका देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है। शेष प्रकृतियोंका असंयतसम्यग्दृष्टियों में दो गतियोंसे संयुक्त बन्ध होता है । उपरिम गुणस्थानोंमें देवगतिसंयुक्त बन्ध होता है। देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकके तिर्यंच व मनुष्य असंयतसम्यग्दहि एवं संयतासंयत स्वामी हैं । तीर्थकर प्रकृतिके तीन गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि स्वामी हैं, क्योंकि, तिर्यग्गतिमें उसके बन्धका अभाव है। उपरिम गुणस्थानवर्ती मनुष्य ही स्वामी हैं, क्योंकि, उनका अन्य गतियों में अभाव है। शेष प्रकृतियोंके चारों गतियोंके असंयतसम्यग्दृष्टि, दो गतियोंके संयतासंयत और मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं । बन्धाध्वान सुगम है । बन्धव्युच्छेद नहीं है, क्योंकि, 'अबन्धक नहीं हैं ' ऐसा सूत्र में निर्दिष्ट है। ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, ध्रुव बन्धका अभाव है । शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशकिर्ति नामकर्मका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २८३ ॥ यहां प्रश्नभंगोंको जानकर कहना चाहिये।। ... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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