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________________ ३६६] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, २८२. दयत्तादो । णिद्दा-पयला-सादावेदणीय-च उसंजलण-पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगुंछ-समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-सुस्सराणं सोदय-परोदओ बंधो, दोहि वि पयारेहि बंधुवलंभादो । देवगइ-वेउव्वियदुग-तित्थयराणं परोदओ बंधो, सोदएण बंधविरोहादो । उवघाद-परघादउस्सास-पत्तेयसरीराणं असंजदसम्मादिट्ठिम्हि बंधो सोदय परोदओ । उवरि सोदओ चेव, तत्थ अपज्जत्तद्धाए अभावादो । णवरि पमत्तसंजदम्मि परघादुस्सासाणं सोदय-परोदओ। सुभगादेजजसकित्तीणमसंजदसम्मादिविम्हि बंधो सोदय-परोदओ । उवरि सोदओ चेव, पडिवक्खुदयाभावादो। उच्चागोदस्स असंजदसम्मादिट्ठीसु संजदासंजदेसु बंधो सोदय-परोदओ । उवरि सोदओ चेव, पडिवक्खुदयाभावादो। पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-चदुसंजलण-पुरिसवेद-भय-दुगुंड-देवगइ-पंचिंदियजादि-वेउव्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण-वेउब्वियसरीरअंगोवंग-वण्ण-गंध-रसफास-देवगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-तस-बादरपज्जत्त-पत्तेयसरीर-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-णिमिण-तित्थयरुचागोद-पंचंतराइयाणं बंधो णिरंतरो, अन्तरायका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां ये ध्रुवोदयी हैं। निद्रा, प्रचला, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वरका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों भी प्रकारोंसे उनका बन्ध पाया जाता है । देवगतिद्विक, वैक्रियिकद्विक और तीर्थकरका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, स्वोदयसे इनके बन्धका विरोध है । उपधात, परघात, उच्छ्वास और प्रत्येकशरीरका असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां अपर्याप्तकालका अभाव है । विशेषता इतनी है कि प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें परघात और उच्छ्वासका स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। सुभग, आदेय और यशकीर्तिका असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें स्वोदय-परोदय बन्ध होता है। ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। उच्चगोत्रका असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतोंमें स्वोदय परोदय बन्ध होता है। ऊपर स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतिके उदयका अभाव है। पांच शानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिक,तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, सुभग, सुस्वर, भादेय, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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