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________________ ३, १३२. पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसु बंधसामित्तं पसत्थविहायगइ-सुस्सर-आदेज्जाणं सोदय-परोदओ बंधो, अपज्जत्तकाले उदयाभावे पि बंधुवलंभादो, पसत्थविहायगह-सुस्सराणमद्धवोदयत्तदसणादो, आदेज्जस्स मिच्छाइट्टिप्पहुडिजाव असंजदसम्मादिहि त्ति उदयस्स भयणिज्जत्तुवलंभादो, उवरि सव्वत्थ धुवोदयत्तदंसणादो च । समचउरससंठाणुवघाद-पत्तेयसरीराणमेवं चेव वत्तव्वं, विग्गहगदीए उदयाभावे वि बंधुवलंभादो, समचउरससंठाणोदयस्स भयणिज्जत्तदंसणादो च । एवं सुभगपज्जत्ताणं पि वत्तवं, पंचिंदिएसु पडिवक्खपयडीए उदयदसणादो । णवरि पंचिंदियपज्जत्तएम पज्जत्तस्स सोदएणेव बंधो, तत्थ पडिवक्खपयडीए उदयाभावादो । एवमेदं मिच्छाइट्ठीणं परूविदं । सासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणमेवं चेव परूवेदव्वं । णवरि पज्जत्तस्स सोदए. णेव' बंधो । एवं सम्मामिच्छादिट्टिआदि उवरिमगुणट्ठाणाणं पि वत्तव्यं । णवरि उवघाद-परघादउस्सास पज्जत्त-पत्तयसरीराणं पि सोदएणेव बंधो, तत्थ अपज्जत्तकालाभावादो । तेजा-कम्मइय-वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-णिमिणाणं सव्वगुणट्ठाणेसु उच्छ्वास, प्रशस्तविहाय गति, सुस्वर और आदेय, इनका स्वोदय परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें उदयके न होनेपर भी इनका बन्ध पाया जाता है, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वर प्रकृतियोंका अधुवोदय देखा जाता है, तथा मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक आदेयका उदय भजनीय अर्थात् विकल्पसे पाया जाता है, और इससे ऊपर सर्वत्र धुवोदय देखा जाता है । समचतुरस्रसंस्थान, उपघात और प्रत्येकशरीरके भी इसी प्रकार कहना चाहिये, क्योंकि, विग्रहगतिमें उदयके न होनेपर भी बन्ध पाया जाता है, तथा समचतुरस्रसंस्थानका उदय भजनीय देखा जाता है। इसी प्रकार सुभग और पर्याप्तके भी कहना चाहिये, क्योंकि, पंचेन्द्रियों में प्रतिपक्ष प्रकृतिका उदय देखा जाता है। विशेष इतना है कि पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में पर्याप्त प्रकृतिका स्वोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, उनमें प्रतिपक्ष प्रकृतिके उदयका अभाव है। इस प्रकार यह मिथ्यादृष्टियोंकी प्ररूपणा हुई । सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियोंकी भी प्ररूपणा इसी प्रकार करना चाहिये । विशेषता यह है कि पर्याप्तका स्वोदयसे ही बन्ध होता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि आदि उपरिम गुणस्थानोंके भी कहना चाहिये । विशेष इतना है कि उपघात, परघात, उच्छ्वास, पर्याप्त और प्रत्येकशरीरका भी स्वोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, उन गुणस्थानोंमें अपर्याप्तकालका अभाव है। तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, और . १ प्रतिषु ‘पज्जतरसोदएणेव ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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