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________________ ३८२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, ३१७. तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-णिमिण-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमाणुवलंभादो । सादासाद-हस्स-रदि-अरदि-सोगित्थिवेद-मज्झिमच उसंठाण-पंचसंघडण-उज्जोव-दोविहायगइ-थिराथिर-सुहासुह-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्तीणं सांतरो बंधो, एगसमएणवि बंधुवरमदसणादो । पुरिसवेदस्स बंधो सांतर-णिरंतरो, पम्म-सुक्कलेस्सिएसु तिरिक्ख-मणुस्सेसु णिरंतरबंधुवलंभादो । देवगइ-वे उव्वियदुग-समचउरससंठाण-सुभग-सुस्सरआदेज्जुच्चागोदाणं बंधो सांतर-णिरंतरो, असंखेज्जवासाउएसु सुहतिलेस्सियतिरिक्ख-मणुस्सेसु च णिरंतरबंधुवलंभादो । मणुसगइदुगस्स बंधो सांतर-णिरंतरो, आणदादिदेवेसु णिरंतरबंधुवलंभादो । तिरिक्खगइदुग-णीचागोदाणं बंधो सांतर-णिरंतरो, सत्तमपुढवीणेरइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो । ओरालियसरीरदुगस्स वि सांतर-णिरंतरो बंधो, देव-णेरइएसु णिरंतरबंधुवलंभादो। देवाउ-देवगइ-वेउव्वियदुगाणं छादालीस पच्चया, वेउब्वियदुगोरालियमिस्स-कम्मइयाणमभावादो । मणुस-तिरिक्खाउआणं सत्तेतालीस पच्चया, ओरालिय-वेउव्वियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणमभावादो । अवसेसाणं पयडीणं पंचास पच्चया, पंचमिच्छत्तपच्चयाणमभावादो । लघ, उपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, निर्माण और पांच अन्तरायको निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे इनका बन्धविश्राम नहीं पाया जाता । साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति, अरति, शोक, स्त्रीवेद, मध्यम चार संस्थान, पांच संहनन, उद्योत, दो विहायोगतियां, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, यशकीर्ति और अयशकीर्तिका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे भी इनका बन्धविश्राम देखा जाता है । पुरुषवेदका बन्ध सान्तर-निरन्तर होता है, क्योंकि, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले तिर्यंच व मनुष्यों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। देवगतिद्विक, वैक्रियिकद्विक, समचतुरस्रसंस्थान, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्रका सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, असंख्यातवर्षायुष्क और शुभ तीन लेश्यावाले तिर्यच व मनुष्यों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। मनुष्यगतिद्विकका बन्धसान्तर निरन्तर होता है, क्योंकि, आनतादिक देवों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है । तिर्यग्गतिद्विक और नीचगोत्रका बन्ध सान्तर-निरन्तर होता है, क्योंकि, सप्तम पृथिवीके नारकियों में उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है । औदारिकशरीरद्विकका भी सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, देव व नारकियोंमें उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। देवायु, देवगतिद्विक और वैक्रियिकद्विकके छयालीस प्रत्यय है,क्योंकि, वैक्रियिकद्विक, औदारिकमिश्र और कार्मण काययोग प्रत्ययोंका अभाव है। मनुष्यायु और तिर्यगायुके सैंतालीस प्रत्यय है, क्योंकि, औदारिकमिश्र, वैक्रियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका अभाव है। शेष प्रकृतियोंके पचास प्रत्यय है, क्योंकि, सासादनसम्यग्दृष्टियोंके पांच मिथ्यात्व प्रत्ययोंका अभाव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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