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________________ ३, ३१७.] सम्मत्तमागणाए बंधसामित्त [३८१ पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-सादासाद-सोलसकसाय-अट्ठणोकसाय-तिरिक्खमणुस-देवाउ-तिरिक्ख-मणुस-देवगइ-पंचिंदियजादि-ओरालिय-वेउव्विय-तेजा-कम्मइयसरीर-पंचसंठाण-ओरालिय-वेउब्वियअंग्रोवंग-पंचसंघडण-वण्ण-गंध-रस-फास-तिरिक्ख-मणुस-देवगइपाओग्गाणुपुवी-अगुरुवलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सास-उज्जोव-दोविहायगइ-तस-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-थिराथिर-सुहासुह-सुभग-दूभग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्ज-अणादेज्ज-जसकित्ति-अजसकित्तिणिमिण-णीचुच्चागोद-पंचंतराइयपयडीओ सासणसम्मादिट्ठीहि बज्झमाणियाओ । एदासिमुदयादो बंधो पुब्वं पच्छा [वा] वोच्छिण्णो त्ति विचारो णत्थि, एत्थ एदासिं बंधोदयवोच्छेदाभावादो । पंचणाणावरणीय-चउदंसणावरणीय-पंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रसफास-अगुरुअलहुअ-तस-बादर-पज्जत्त-थिराथिर-सुहासुह-णिमिण-पंचंतराइयाणं सोदओ बंधो, धुवोदयत्तादो । देवाउ-देवगइ-वेउब्धियदुगाणं परोदओ बंधो, सोदएण बंधविरोहादो । अवसेसाणं पयडीणं बंधो सोदय-परोदओ, उहयहा वि बंधुवलंभादो । पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय-सोलसकसाय-भय-दुगुंछा-तिरिक्ख-मणुस-देवाउपंचिंदियजादि-तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फास अगुरुवलहुअ-उवघाद-परघाद-उस्सास पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, सोलह कषाय, आठ नोकपाय, तिर्यगाय, मनुष्याय, देवाउ, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीर, पांच संस्थान, औदारिक व वैक्रियिक अंगोपांग, पांच संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलधु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, दो विहायोगतियां, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति, निर्माण, नीच व ऊंच गोत्र पांच अन्तराय,ये प्रकृतिया सासादनसम्यग्हांजावा द्वारा बध्यमान है। इनका बन्ध उदयसे पूर्वमें या पश्चात् व्युच्छिन्न होता है, यह विचार नहीं हैं। क्योंकि, यहां इनके बन्ध और उदयके व्युच्छेदका अभाव है। पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलधु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और पांच अन्तरायका स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, ये ध्रुवोदयी हैं । देवायु, देवगतिद्विक और वैक्रियिकतिकका परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, स्वोदयसे इनके बन्धका विरोध है। शेष प्रकृतियोका बन्ध स्वोदय परोदयसे होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारोंसे भी उनका वन्ध पाया जाता है। __ पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यगायु, मनुष्यायु, देवायु, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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