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________________ ३, ७८.] - देवगदीए पंचणाणावरणीयादीणं बंधसामित्तं पत्तेयसरीर-उवघादाणं सोदय-परोदएण बंधो, विग्गहगदीए उदयाभावादो। परघादुस्सासपसत्थविहायगदि-सुस्सराणं सोदय परोदएण बंधो, अपज्जत्तकाले उदयाभावे वि बंधदंसणादो। णवरि सम्मामिच्छाइट्ठिस्स एदासिं सोदएण बंधो। मणुसगइ ओरालियसरीर-ओरालियसरीरअंगोवंग-वज्जरिसहसंघडण-मणुस्साणुपुवी-अजसकित्तीणं परोदएणेव वंधो, तत्थेदेसिमुदयविरोहादो। पंचणाणावरणीय-छदंसणावरणीय-बारसकसाय-भय-दुगुंछा-ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीर वण्ण-गंध-रस-फास-अगुरुअलहुअ-उवघाद-उस्सास-बादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-णिमिण-पंचतराइयाणं णिरंतरो बंधो, देवगदीए बंधविरोहाभावादो । सादासाद-हस्स-रदि-अरदि-सोगथिराथिर-सुभासुभ-जसकित्तीणं सांतरो बंधो, एगसमएण बंधविरामुवलंभादो । पुरिसवेद-समचउरससंठाण-वज्जरिसहसंघडण-पसत्थविहायगइ-सुभग-सुस्सर-आदेज्जुच्चागोदाणं मिच्छाइट्ठिसासणसम्माइट्ठीसु सांतरो बंधो, एगसमएण बंधविरामदंसणादो । सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठीसु णिरंतरो, तत्थ पडिवक्खपयडीणं बंधाभावादो । पंचिंदियजादि-मणुस्सगइमणुस्साणुपुवी-ओरालियसरीरअंगोवंग-तसाणं मिच्छाइटिम्हि सांतर-णिरंतरो । सासणसम्मादिट्टिसम्मामिच्छादिट्टि-असंजदसम्मादिठ्ठीसु णिरंतरो, पडिवक्तपयडीणं बंधाभावादो । णवरि परोदयसे वन्ध होता है, क्योंकि, विग्रहगतिमें इनके उदयका अभाव है । परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वर, इनका स्वोदय-परोदयसे बन्ध होता है, क्योंकि, अपर्याप्तकाल में इनके उदयका अभाव होनेपर भी बन्ध देखा जाता है। विशेषता यह है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टिके इनका स्वोदयसे बन्ध होता है। मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वर्षभसंहनन, मनुष्यानुपूर्वी और अयशकीर्ति, इनका परोदयसे ही बन्ध होता है, क्योंकि, देवों में इनके उदयका विरोध है। पांच ज्ञानावरणीय, छह दर्शनावरणीय, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, उच्छ्वास, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, निर्माण और पांच अन्तराय, इनका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, देवगतिमें इनके निरन्तर बन्धका विरोध नहीं है । साता व असाता वेदनीय, हास्य, रति,अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और यशकीर्ति, इनका सान्तर वन्ध होता है, क्योंकि एक समयमें इनके बन्धका विश्राम पाया जाता है । पुरुषवेद, समचतुरस्नसंस्थान, वजर्षभसहनन, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय और उच्चगोत्र, इनका मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयमें इनके बन्धका विश्राम देखा जाता है। सम्यग्मिथ्याइष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके वन्धका अभाव है । पंचन्द्रिय जाति, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, औदारिकशरीरांगोपांग और प्रस, इनका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें इनका निरन्तर बग्ध होता है, क्योंकि, वहां प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है। विशेष इतना है कि मनुष्याद्विकका सासादन गुणस्थानमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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