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३, २१८.] णाणमग्गणाए बंधमामित्तं
[ २९५ मणपज्जवणाणीसुपंचणाणावरणीय-चउदसणावरणीय-जसकित्तिउच्चागोद-पंचंतराइयाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २१६ ॥
सुगमं ।
पमत्तसंजदप्पहुडि जाव सुहुमसांपराइयउवसमा खवा बंधा । सुहुमसांपराइयसंजदद्धाए चरिमसममं गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ॥ २१७ ॥
____एत्थ एदासिं पयडीणं मदिणाणमग्गणाए पमत्तसंजदप्पहुडिगुणट्ठाणेसु जधा परूवणा कदा तधा परवेदव्वा । णवरि एत्थ सबस्थित्थि-णउसयवेदपच्चया अवणेदव्वा, अप्पसत्थवेदोदइल्लाण मणपज्जवणाणाणुप्पत्तीदो । पमत्तपच्चएसु आहारदुगमवणदेव्वं, मणपज्जवणाणस्स आहारसरीरदुगोदएण सह विरोहादो । पुरिसवेदस्स सोदओ बंधो । एवमण्णो वि विसेसो जदि अत्थि सो संभरिय वत्तव्यो ।
णिहा-पयलाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ २१८ ॥
मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तरायका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २१६ ॥
यह सूत्र सुगम है।
प्रमत्तसंयतसे लेकर सूक्ष्मसाम्परायिक उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं । सूक्ष्मसाम्परयिकशुद्धिसंयतकालके अन्तिम समयको जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है। ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ २१७॥
यहां इन प्रकृतियोंकी मतिज्ञानमार्गणामें प्रमत्तसंयतादिक गुणस्थानोंमें जैसे प्ररूपणा की गई है वैसे प्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि यहां सर्वत्र स्त्रीवेद और नपुंसकवेद प्रत्ययोंको कम करना चाहिये, क्योंकि, अप्रशस्त वेदोदय युक्त जीवोंके मनःपर्ययज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होती। प्रमत्तसंयत गुणस्थान सम्बन्धी प्रत्ययोंमें आहारकद्विकको कम करना चाहिये, क्योंक, मनःपर्ययज्ञानका आहारशरीरद्विकके उदयके साथ विरोध है। पुरुषवेदका स्वोदय बन्ध होता है। इसी प्रकार अन्य भी यदि भेद है तो उसको स्मरण कर कहना चाहिये ।
निद्रा और प्रचलाका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ २१८ ॥
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