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________________ ८८] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, ४१. साहूणं समाहिसंधारणदाए-दंसण-णाण-चरित्तेसु सम्ममवट्ठाणं समाही णाम । सम्म साहणं धारणं संधारणं । समाहीए संधारणं समाहिसंधारणं, तस्स भावो समाहिसंधारणदा। ताए तित्थयरणामकम्मं बज्झदि त्ति । केण वि कारणेण पदंतिं समाहिं दट्टण सम्मादिट्ठी पवयणवच्छलो पवयणप्पहावओ विणयसंपण्णो सील-बदादिचारवज्जिओ अरहंतादिसु भत्तो संतो जदि धरेदि तं समाहिसंधारणं । कुदो एदमुवलब्भदे ? सं-सद्दपउंजणादो । तेण बज्झदि त्ति वुत्तं होदि । ण च एत्थ सेसकारणाणमभावो, तदत्थित्तस्स दरिसिदत्तादो । एवमेदं णवमं कारणं । साहूणं वेज्जावच्चजोगजुत्तदाए- व्यापृते यत्क्रियते तद्वैयावृत्यम् । जेण सम्मत्त-णाणअरहंत-बहुसुदभत्ति-पवयणवच्छल्लादिणा जीवो जुज्जइ वेज्जावच्चे सो वेज्जावच्चजोगो दंसणविसुज्झदादि, तेण जुत्तदा वेज्जावच्चजोगजुत्तदा । ताए एवंविहाए एक्काए वि तित्थयरणामकम्मं बंधइ । एत्थ सेसकारणाणं जहासंभवण अंतब्भावो वत्तव्यो । एवमेदं साधुओंकी समाधिसंधारणतासे तीर्थकर नामकर्म बंधता है-दर्शन, ज्ञान व चारित्रमें सम्यक् अवस्थानका नाम समाधि है । सम्यक् प्रकारसे धारण या साधनका नाम संधारण है । समाधिका संधारण समाधिसंधारण और उसके भावका नाम समाधिसंधारणता है। उससे तीर्थंकर नामकर्म बंधता है। किसी भी कारणसे गिरती हुई समाधिको देखकर सम्यग्दृष्टि, प्रवचनवत्सल, प्रवचनप्रभावक, विनयसम्पन्न, शील व्रतातिचारवर्जित और अरहंतादिकोंमें भक्तिमान् होकर चूंकि उसे धारण करता है इसीलिये वह समाधिसंधारण है।। शंका—यह कहांसे जाना जाता है ? समाधान-यह 'संधारण' पदमें किये गये 'सं' शब्दके प्रयोगसे जाना जाता है। इस समाधिसंधारणसे तीर्थकर नामकर्म बंधता है, यह अभिप्राय है। इसमें शेष कारणोंका अभाव नहीं है, क्योंकि, उनका अस्तित्व वहां दिखला ही चुके हैं । इस प्रकार यह नौवां कारण है। साधुओंकी वैयावत्ययोगयुक्ततासे तीर्थकर नामकर्म बंधता है- ब्यापृत अर्थात् रोगादिसे व्याकुल साधुके विषयमें जो किया जाता है उसका नाम वैयावृत्य है । जिस सम्यक्त्व, ज्ञान, अरहन्तभक्ति, बहुश्रुतभक्ति एवं प्रवचनवत्सलत्वादिसे जीव वैयावत्यमें लगता है वह वैयावत्ययोग अर्थात् दर्शनविशुद्धतादि गुण हैं, उनसे संयुक्त होने का नाम वैयावत्ययोगयुक्तता है । इस प्रकारकी उस एक ही वैयावत्ययोगयुक्ततासे तीर्थकर नामकर्म बंधता है । यहां शेष कारणोंका यथासम्भव अन्तर्भाव कहना १ प्रतिषु ‘सीउवदादि' इति पाठः । २ आ-काप्रत्योः ‘पउंजणादारेण बज्झदि ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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