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________________ ३, ४१.] तित्थयरबंधकारणपरूवणा [८१ रण-वेजावच्चजोगजुत्तत्त-पासुअपरिच्चाग-अरहंत-बहुसुद पवयणभत्ति-पवयणपहावणलक्खणसुद्धिजुत्तेण विणा सीलव्वदाणमणदिचारत्तस्स अणुववत्तीदो । असंखेज्जगुणाए सेडीए कम्मणिज्जरणहेदू वदं णाम । ण च सम्मत्तेण विणा हिंसालिय-चोज्जब्बभपरिग्गहविरइमेत्तेण सा गुणसेडिणिज्जरा होदि, दोहिंतो चेवुप्पज्जमाणकज्जस्स तत्थेक्कादो समुप्पत्तिविरोहादो । होदु णाम एदेसिं संभवो, ण णाणविणयस्स ? ण, छदव्व-णवपदत्थसमूह-तिहुवणविसएण अभिक्खणमभिक्खणमुवजोगविसयमापज्जमाणेण णाणविणएण विणा सीलव्वदणिबंधणसम्मत्तुप्पत्तीए अणुववत्तीदो। ण तत्थ चरणविणयाभावो वि, जहाथामतवावासयापरिहीणत्त-पवयणवच्छलत्तलक्खणचरणविणएण विणा सीलबदणिरदिचारत्ताणुववत्तीदो । तम्हां तदियमेदं तित्थयरणामकम्मबंधस्स कारणं । ( आवासएसु अपरिहीणदाए- समदा-थर्व-वंदण-पडिक्कमण-पञ्चक्खाण-विओसग्गभेएण साधुसमाधिधारण, वैयावत्ययोगयुक्तता, प्रासुकपरित्याग, अरहंतभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति और प्रवचनप्रभावना लक्षण शुद्धिसे युक्त सम्यग्दर्शनके विना शील-व्रतोंकी निरतिचारता बन नहीं सकती। दूसरी बात यह है कि जो असंख्यात गणित श्रेणीसे कर्मनिर्जराका कारण है वही व्रत है। और सम्यग्दर्शनके विना हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रहसे विरत होने मात्रसे वह गुणश्रेणीनिर्जरा हो नहीं सकती, क्योंकि, दोनोंसे ही उत्पन्न होनेवाले कार्यकी उनमेंसे एकके द्वारा उत्पत्तिका विरोध है। शंका- इनकी सम्भावना यहां भले ही हो, पर ज्ञानविनयकी सम्भावना नहीं हो सकती? समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि छह द्रव्य, नौ पदार्थों के समूह और त्रिभुवनको विषय करनेवाले एवं बार बार उपयोगविषयको प्राप्त होनेवाले शानविनयके विना शीलव्रतोंके कारणभूत सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति नहीं बन सकती। शील-व्रतविषयक निरतिचारतामें चारित्रविनयका भी अभाव नहीं कहा जासकता है, क्योंकि यथाशक्ति तप, आवश्यकापरिहीनता और प्रवचनवत्सलता लक्षण चारित्रविनयके विना शील-व्रतविषयक निरतिचारताकी उपपत्ति ही नहीं बनती। इस कारण यह तीर्थकर नामकर्मके बन्धका तीसरा कारण है। आवश्यकोंमें अपरिहीनतासे ही तीर्थकर नामकर्म बंधता है--समता, स्तव, १ प्रतिषु · ते जहा' इति पाठः। २ प्रतिषु वय ' इति पाठः । । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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