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________________ २४] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, ६. कम्मइयकायजोगेसु पक्खित्तेसु सत्त होंति | ७ |। एदेहि सत्तहि पच्चएहि सजोगिजिणो बंधदि । एत्थ उवसंहारगाहाओ --- चदुपच्चइगो बंधो पढमे उवरिमतिए तिपच्चइओ । मिस्सगबिदिओ उवरिमदुगं च सेसेगदेसम्हि ॥ २० ॥ उरिल्लपंचए पुण दुपच्चओ जोगपच्चओ तिण्णं । सामण्णपच्चया खलु अट्टणं होंति कम्माणं ॥ २१ ॥ पणवण्णा इर वण्णा तिदाल छादाल सत्ततीसा य । चदुवीस दु बावीसा सोलस एगूण जाव णव सत्तं ॥ २२ ॥) संपधि एगसमइय उत्तरुत्तरपच्चए चोदसजीवसमासेसु भणिस्सामो । तं जहा दो दो अर्थात् मृषा और सत्यमृषा मन और वचन योगोंको अलग करके औदारिकमिश्र व कार्मण काययोगको मिला देने पर सात होते हैं (७)। इन सात प्रत्ययोंसे सयोगी जिन [एक सातावेदनीयको] बांधते हैं । यहां उपसंहारगाथायें प्रथम गुणस्थानमें चारों प्रत्ययोंसे वन्ध होता है। इससे ऊपर तीन गुणस्थानों में मिथ्यात्वको छोड़कर शेष तीन प्रत्ययसंयुक्त बन्ध होता है । देशसंयत गुणस्थानमें मिश्ररूप अर्थात् विरताविरतरूप द्वितीय प्रत्यय और कषाय व योग ये शेष दोनों उपरिम प्रत्यय रहते हैं । इसके ऊपर पांच गुणस्थानों में कषाय और योग इन दो प्रत्ययोंके निमित्तसे बन्ध होता है । पुनः उपशान्तमोहादि तीन गुणस्थानों में केवल योगनिमित्तक बन्ध होता है। इस प्रकार गुणस्थान क्रमसे आठ कमौके ये सामान्य प्रत्यय हैं ॥ २०-२१॥ पचवन', पचास', तेतालीस, छयालीस', सैंतीस', चौबीस', दो वार बाईस., सोलह और इसके आगे नौ तक एक एक कम अर्थात् पन्द्रह, चौदह, तेरह, बारह, ग्यारह, दश, दश, नौ, नौ और सात', इस प्रकार क्रमसे मिथ्यात्वादि अपूर्वकरण तक आठ गुणस्थानों में, अनिवृत्तिकरणके सात भागों में तथा सूक्ष्मसाम्परायादि सयोगकेवली तक शेष गुणस्थानों में बन्धप्रत्ययोंकी संख्या है ॥२२॥ ____ अब एक समयमें होनेवाले उत्तरोत्तर प्रत्ययोंको चौदह जीवसमासोंमें कहते हैं। १ अप्रतौ — उवरिमतिएवपच्चइओ', काप्रतौ — उवरिमतिए चेव पच्चइओ' इति पाठः । २ अप्रतौ सेसेगदेसेहिं ', काग्रतौ 'देसेकदेसेहिं ' इति पाठः । चदुपच्चइगो बंधो पढमे णतरतिगे तिपच्चइगो । मिस्सगविदियं उवरिमदुगं च देसक्कदेसम्मि ॥ गो. क. ७८७. ३ गो. क. ७८८. ४ पणवण्णा पण्णासा तिदाल छादाल सत्तत्तीसा य। चदुवीसा बावीसा बावीसयपुवकरणो त्ति ॥ थूले सोलसपहुदी एगणं जाव होदि दस ठाणं । सुहुमादिसु दस णवयं जोगिम्हि सत्तेवा ॥ गो. क.७८९=७९०. . ५ अप्रतौ ' -पच्चएहि ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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