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________________ १०० छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, ४६. सांतरबंधपयडी वुच्चदि तो उज्जोवस्स पडिवक्खबंधपयडीए अणुज्जोवसरूवाए अभावादो उज्जोवेण णिरंतरबंधिणा होदव्वमध बंधविणासो अत्थि ति जदि सांतरत्तं वुच्चदि तो तित्थयराहारदुगाउआणं पि सांतरत्तं पसज्जदि त्ति ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-जं वुत्तं पडिवक्खपयडिबंधमस्सिदूण थक्कमाणबंधा सांतरबंधि त्ति तं सांतरबंधीसु पडिवक्खपयडिबंधाविणाभावं दट्ठण वुत्तं । परमत्थदो पुण एगसमय बंधिदूण बिदियसमए जिस्से बंधविरामो दिस्सदि सा सांतरबंधपयडी। जिस्से बंधकालो' जहण्णो वि अंतोमुत्तमेत्तो सा जिरंतरबंधपयडि त्ति घेत्तन्वं । पच्चयपरूवणे कीरमाणे चउठाणियपयडिभंगो । णवरि तिरिक्खाउअस्स मिच्छाइट्ठिम्हि एगुणवंचास पच्चया, वेउब्वियमिस्स-कम्मइयपच्चयाणमभावादो । शंका-यदि प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका आश्रय करके बन्धविश्रान्तिको प्राप्त होनेवाली प्रकृति सान्तरबन्ध प्रकृति कही जाती है तो उद्योतकी प्रतिपक्षभूत अनुद्योतस्वरूप प्रकृतिका अभाव होनेसे उद्योतको निरन्तरबन्धी प्रकृति होना चाहिये । अथवा बन्धका विनाश है, इस कारणसे यदि सान्तरता कही जाती है तो फिर तीर्थंकर, आहारद्विक और आयु कर्मोंके भी सान्तरताका प्रसंग आता है ? समाधान-यहां उपर्युक्त शंकाका परिहार कहते हैं -- प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धका आश्रय करके बन्धविश्रान्तिको प्राप्त होनेवाली प्रकृति सान्तरवन्धी है, इस प्रकार जो कहा है वह सान्तरबन्धी प्रकृतियोंमें प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धके अविनाभावको देखकर कहा है। वास्तवमें तो एक समय बंधकर द्वितीय समयमें जिस प्रकृतिकी बन्धविश्रान्ति देखी जाती है वह सान्तरबन्ध प्रकृति है। जिसका बन्धकाल जघन्य भी अन्तर्मुहूर्तमात्र है वह निरन्तरबन्ध प्रकृति है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। प्रत्ययप्ररूपणा करते समय चतुस्थानिक ( चार गुणस्थानों में बंधनेवाली) प्रकृतियोंके समान ही प्रत्ययप्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि तिर्यगायुके मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें यहां उनचास प्रत्यय हैं, क्योंकि, वैफियिकमिश्र और कार्मण प्रत्ययोंका अभाव है। १ प्रतिषु 'काला' इति पाठः । २ यासां प्रकृतीनां जघन्यतः समयमात्र बन्धः, उत्कर्षतः समयादारभ्य यावदन्तर्मुहुर्ते न परतः, ताः सान्तरबन्धाः, अन्तर्मुहूर्त्तमध्येऽपि सान्तरो विच्छेदलक्षणान्तरसंहितो बन्धो यास ताः सान्तरा इति व्युत्पत्तेः । अन्तर्मुहूर्तोपरि विच्छिद्यमानबन्धवृत्तिजातिमत्यः सान्तरबन्धा इति फलितार्थः | xxx जघन्येनापि या अन्तर्मुहूर्त यावरन्तर्येण बन्ध्यन्ते ता निरन्तरबन्धाः, निर्गतमन्तरमन्तर्मुहूर्तमध्ये व्यवच्छेदलक्षणं यस्य तादृशो बन्धो यासामिति व्युत्पत्तेः, अन्तर्मुहूर्तमध्याविच्छिन्नबन्धवृत्तिजातिमत्य इति यावत् । क. प्र. पृ. १४-१५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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