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________________ ७२] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, ३६. एवं देसामासियसुत्तं, बंधद्धाणं, सामित्त विणटुट्ठाणं वि य' परूवणादो । तेणेदेण सूइदत्थाणं परूवणा कीरदे---- एदासिमुदओ पुव्वं वोच्छिज्जदि पच्छा बंधो, पमत्तसंजदम्मि णट्ठोदयाणमेदासिमपुवकरणम्मि बंधवोच्छेदुवलंभादो । परोदएणेव एदाओ बझंति, आहारदुगोदयविरहिदअप्पमत्तेसु चेव बंधोवलंभादो । णिरंतरं वज्झंति, पडिवक्खपयडीण बंधेण विणा बंधभावादों । पच्चयपरूवणाए मूलुत्तरणाणेगसमयजहण्णुक्कस्सपच्चया णाणावरणस्सेव वत्तव्वा । [जदि चदुसंजलण-णवणोकसाय-जोगा बाबीस चेव आहारदुगस्स पच्चया तो सब्वेसु अप्पमत्तापुव्वकरणेसु आहारदुगबंधेण होदव्वं । ण चेवं, तहाणुवलंभादो। तदो अण्णेहि वि पच्चएहि होदव्वमिदि ? ण एस दोसो, इच्छिज्जमाणत्तादो । के ते अण्णे पच्चया जेहि आहारदुगस्स बंधा होदि ति वुत्ते वुच्चदे- तित्थयराइरिय-बहुसुद-पवयणाणुरागो आहारदुगपच्चओ । अप्पमादो वि, सप्पमादेसु आहारदुगबंधस्साणुवलंभादो । अपुवस्सुवरिमसत्तमभाग यह देशामर्शक सूत्र है, क्योंकि वह बन्धाध्वान, स्वामित्व और बन्धविनष्टस्थानका ही प्ररूपण करता है। इसी कारण इस सूत्रसे सूचित अर्थोकी प्ररूपणा करते हैं- इन दोनों प्रकृतियोंका उदय पूर्वमें व्युच्छिन्न होता है, पश्चात् बन्ध; क्योंकि प्रमत्तसंयतमें इनके उदयके नष्ट होजानेपर अपूर्वकरणमें वन्धव्युच्छेद पाया जाता है। ये दोनों प्रकृतियां परोदयसे बंधती हैं, क्योंकि, आहारद्विकके उदयसे रहित अप्रमत्तसंयतोंमें अर्थात् अप्रमत्त और अपूर्वकरण गुणस्थानों में ही इनका बन्ध पाया जाता है। उक्त दोनों प्रकृतियोंका बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि, प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धके विना इनके बन्धका सद्भाव पाया जाता है। प्रत्ययप्ररूपणामें मूल व उत्तर नाना एवं एक समय सम्बन्धी जघन्य उत्कृष्ट प्रत्यय शानावरणके समान ही कहना चाहिये। शंका--चार संज्वलन, नौ नोकपाय और नौ योग, इस प्रकार यदि वाईस ही आहारकद्विकके प्रत्यय हे तो सर्व अप्रमत्त और अपूर्वकरण संयतोंमें आहारद्विकका वन्ध होना चाहिये । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। अत एव अन्य भी प्रत्यय होना चाहिये? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अन्य प्रत्ययोंका मानना अभीष्ट ही है। शंका-वे अन्य प्रत्यय कौनसे हैं जिनके द्वारा आहाराद्विकका बन्ध होता है ? समाधान-इस शंकाके उत्तरमें कहते हैं- तीर्थकर, आचार्य, बहुश्रुत अर्थात् उपाध्याय और प्रवचन, इनमें अनुराग करना आहारद्विकका कारण है । इसके अतिरिक्त प्रमादका अभाव भी आहारद्विकका कारण है, क्योंकि, प्रमाद सहिद जीवों में आहारद्विकका बन्ध पाया नहीं जाता। ...................... ... २ आ-कापत्योः ‘बंधाभावादो' इति पाठः । १ आप्रती ‘वि य य' इति पाठः । ३ प्रतिषु — अपुब्बासुवरिम' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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