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________________ २५८] . छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, १७७. गइपाओग्गाणुपुव्वी-वेउब्वियसरीर-वेउब्वियसरीरअंगोवंगाणं पुव्वमुदओ पच्छा बंधो वोच्छिज्जदि, अपुव्वासंजदसम्माइट्ठीसु देवगइपाओग्गाणुपुव्वीए अपुव्व-सासणेसु कमेण बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो। तेजा-कम्मइयसरीर-समचउरससंठाण वण्ण-गंध रस-फास-अगुरुवलहुअउवघाद-परघाद-उस्सास-पसत्थविहायगइ-पत्तेयसरीर-थिर-सुह-सुस्सर-णिमिणाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, अपुव अणियट्टीसु कमेण बंधोदयवोच्छेदुवलंभादो । पंचिंदियजादि-तसबादर-पज्जत्त-सुभगादेज्जाणं पि एवं चेव वत्तव्यं । देवगइ-देवगइपाओग्गाणुपुब्वि-वे उब्वियसरीर-वेउव्वियसरीरअंगोवंगाणं परोदएणेव सव्वत्थ बंधो, सोदएणेदासिं बंधविरोहादो। पंचिंदियजादिन्तेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस-फासअगुरुवलहुअ-तस-बादर-पजत्त-थिर-सुभ-णिमिणाणं सोदओ सव्वगुणट्ठाणेसु बंधो, एत्थेदासिं धुवोदयत्तदंसणादो । समचउरससंठाण-पसत्थविहायगइ-सुस्सराण सव्वत्थ सोदय-परोदओ बंधो, उभयहा वि बंधाविरोहादों। उवघाद-परघाद-उस्सास-पत्तेयसरीराणं मिच्छादिहिसासणसम्मादिट्ठीसु बंधो सोदय-परोदओ, विग्गहगदीए केसिंचि अपज्जत्तकाले च उदएण और वैक्रियिकशरीरांगोपांगका पूर्वमें उदय और पश्चात् बन्ध व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, अपूर्वकरण और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में तथा देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके अपूर्वकरण और सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानोंमें क्रमसे बन्धव उदयका व्युच्छेद पाया जाता है। तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुस्वर और निर्माण, इनका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानों में क्रमसे इनके बन्ध व उदयका व्युच्छेद पाया जाता है। पंचेन्द्रियजाति, प्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग और आदेयके भी इसी प्रकार कहना चाहिये। देवगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीरांगोपांगका परोदयसे ही सर्वत्र बन्ध होता है, क्योंकि, स्वोदयसे इनके बन्धका विरोध है । पंचेन्द्रियजाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, शुभ और निर्माणका सब गुणस्थानों में स्वोदय बन्ध होता है, क्योंकि, यहां ये प्रकृतियां ध्रुवोदयी देखी जाती हैं । समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति और सुस्वरका सर्वत्र स्वोदयपरोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों प्रकारसे भी इनके बन्धका विरोध नहीं है । उपघात, परघात. उच्छवास और प्रत्येकशरीरका बन्ध मिथ्याडष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में स्वोदय परोदय होता है, क्योंक, विग्रहगातमें ओर किन्हींके अपर्याप्तकालमें १ प्रतिषु बंधविरोहादो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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