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२७६) छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ
[ ३, १९५. मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अणियट्टि उवसमा खवा बंधा। एदे बंधा, अबंधा णत्थि ॥ १९५ ॥
कोधसंजलणमैत्थ एदाहि सह किण्ण परविदं ? ण, तस्स माणसंजलणबंधादो पुवमेव वोच्छिण्णबंधस्स माणादीहि बंधद्धाणं पडि पच्चासच्चीए अभावाद।। एदस्स सुत्तस्स परूवणाए कोधभंगो । णवरि माणस्स सोदओ, अण्णेसिं कसायाणं परोदओ बंधो । पच्चएसु माणकसायं मोत्तूण सेसकसाया अवणेदव्वा । सेसं जाणिय वत्तव्यं ।
बेट्टाणि जाव पुरिसवेद-कोधसंजलगाणमोघं ॥ १९६ ॥
बेवाणि ति वुते बेट्टाणिय-णिद्दा-असाद-मिच्छत आच्चक्खाण-पच्चक्खाणदंडया घेत्तव्वा, देसामासियत्तादो । पुरिसवेद-कोधसंजलणे त्ति वुते तस्स एक्कस्सेव सुत्तस्स गहणं कायव्वं । एदेसिं सुत्ताणमाघपरूवणमवहारिय वत्तव्वं ।
मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरणगुणस्थानवी उपशमक व क्षपक तक बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक कोई नहीं हैं ॥ १९५ ॥
शंका-यहां इन प्रकृतियों के साथ संज्वलन क्रोधकी प्ररूपणा क्यों नहीं की गई है?
समाधान नहीं, क्योंकि संज्वलनमानके बन्धसे उसका बन्ध पूर्वमें ही व्युच्छिन्न हो जाता है, अत एव मानादिकोंके साथ बन्धाध्वानके प्रति उसकी प्रत्यासत्तिका अभाव है। इसी कारण उसकी प्ररूपणा यहां नहीं की गई है।
इस सूत्रकी प्ररूपणा क्रोधके समान है । विशेष इतना है कि मानका स्वोदय और अन्य कषायोंका परोदय बन्ध होता है। प्रत्ययोंमें मानकषायको छोड़कर शेष कषायोंको कम करना चाहिये । शेष प्ररूपणा जानकर कहना चाहिये।
द्विस्थानिक प्रकृतियोंको लेकर पुरुषवेद और संज्वलनक्रोध तक ओघके समान प्ररूपणा
'द्विस्थानिक' ऐसा कहनेपर द्विस्थानिक, निद्रा, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण दण्डकोंका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, यह देशामर्शक पद है । पुरुषवेद व संज्यलनक्रोध, ऐसा कहनेपर उस एक ही सूत्रका ग्रहण करना चाहिये। इन सूत्रोंकी ओघप्ररूपणाका निश्चय कर व्याख्यान करना चाहिये ।
१ प्रतिषु · सादअसाद ' इंति पाठः ।
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