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________________ ३, १७७.] वेदमग्गणाए बंधसामित्त [२६१ संजदा मणुसगइसंजदा च सामी। बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । धुवबंधीणं मिच्छादिविम्हि बंधो चउव्विहो । अण्णत्थ तिविहो, धुवबंधाभावादो। अवसेसाणं पयडीणं बंधो सादि-अद्धवो, अद्धवबंधित्तादो। आहारसरीर-आहारसरीरंगोवंगाणं ओघपरूवणमवहारिय वत्तव्वं । तित्थयरस्स वि ओघपरूवणं चेव णादूण वत्तव्वं । णवरि वेउब्बिय-वे उब्वियमिस्स-ओरालियमिस्स-कम्मइयकायजोग-पुरिस-णवंसयवेदा असंजदसम्मादिटिपच्चएसु अवणेदव्वा । अण्णत्थ पुरिस-णqसयपच्चया चेव अवणेदव्वा । तित्थयरबंधस्स मणुसा चेव सामी, अण्णस्थित्थिवेदोदइल्लाणं तित्थयरस्स बंधाभावादो। अपुव्वकरण उवसामएसु तित्थयरस्स बंधो, ण क्खवएसु; इत्थिवेदोदएण तित्थयरकम्मं बंधमाणाणं खवगसेडिसमारोहणाभावादो । . ___ जहा इत्थिवेदोदइल्लाणं सव्वसुत्ताणि परूविदाणि तहा णqसयवेदोदइल्लाणं पि वत्तव्वं । णवरि सव्वत्थ इत्थिवेदम्मि भणिदपच्चएसु इत्थिवेदमवणिय गqसयवेदो पक्खिविदव्वो। असंजदसम्मादिट्टिपच्चएसु वेउब्वियमिस्स-कम्मइयकायजोगपच्चया पक्खिविदव्वा, संयतासंयत; तथा मनुष्यगतिके संयत स्वामी हैं। बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । ध्रुवबन्धी प्रकृतियोंका मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें चारों प्रकारका बन्ध होता है। अन्य गुणस्थानों में तीन प्रकारका बन्ध होता है, क्योंकि, वहां ध्रुव बन्धका अभाव है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है, क्योंकि, वे अध्रुवबन्धी हैं । आहारकशरीर और आहारकशरीरांगोपांगकी प्ररूपणा ओघप्ररूपणाका निश्चय कर कहना चाहिये । तीर्थकर प्रकृतिकी भी ओघप्ररूपणाको ही जानकर कहना चाहिये। विशेषता केवल यह है कि वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, औदारिकमिश्र, कार्मण काययोग, पुरुषवेद और नपुंसकवेद प्रत्ययोंको असंयतसम्यग्दृष्टिके प्रत्ययोंमेंसे कम करना चाहिये। तीर्थकर प्रकृतिके बन्धके मनुष्य ही स्वामी हैं, क्योंकि, अन्य गतियोंमें स्त्रीवेदोदय युक्त जीवोंके तीर्थकर प्रकृतिके बन्धका अभाव है । अपूर्वकरण उपशामकोंमें तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध होता है, क्षपकोंमें नहीं; क्योंकि, स्त्रीवेदके उदयके साथ तीर्थकरकर्मको बांधनेवाले जीवोंके क्षपकश्रेणीके आरोहणका अभाव है। जिस प्रकार स्त्रीवेदोदय युक्त जीवोंकी अपेक्षा सब सूत्रों की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार नपुंसकवेदोदय युक्त जीवोंके भी कहना चाहिये । विशेषता केवल इतनी है कि सर्वत्र स्त्रीवेदमें कहे हुए प्रत्ययोंमेंसे स्त्रीवेदको कम कर नपुंसकवेदको जोड़ना चाहिये। असंयतसम्यग्दृष्टिके प्रत्ययोंमें वैक्रियिकमिश्र और कार्मण काययोग प्रत्ययोंको जोड़ना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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