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________________ २६२२]] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [ ३, १७७. णेरइएसु आउअबंधवसेण सम्मादिट्ठीणमुप्पत्तिदंसणा दो । णिरयाउ- णिरय दुग- इत्थिवेदाणं सव्वत्थ पुरिसवेदस्सेव परोदएण बंधो। णवुंसयवेदस्स सोदएण । एइंदिय- बीइंदिय-तीइंदिय- चउरिंदियजादि - आदाव-यावर - सुहुम-अपज्जत-साहारणाणं सोदय- परोदओ बंधो, एदेसु त्तट्टा सिं पडिवक्खट्ठाणेसु च णवुंसयवेदुदयदंसणादो । तिरिक्खगइ-तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्विणीचा गोदाणं सांतर- णिरंतरो बंधो । कुदो ? तेउ-वाउकाइएसु सत्तमपुढविणेरइएसु च दोसु वि गुणट्ठाणेसु णिरंतरबंधुवलंभादो | मणुसगइमणुसगइपाओग्गाणुपुव्वीणं सांतर - णिरंतरे। मिच्छादिट्ठि - सासणसम्मादिट्ठीसु बंधो । कुदो ? आणदादिदेवेर्हितो णवुंसयवेदोदइल्लमणुस्से सुप्पण्णाणं तित्थयरमंतकम्मेण णेरइरसुप्पण्णमिच्छाइट्ठीणं च णिरंतर बंधुवलंभादो । ओरालियसरीर-ओरालिय सरीरंगोवंगाणं मिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठी सणक्कुमारादिदेव - णेरइए अस्सिदूण निरंतरो बंधो । अण्णत्थ सांतरा वत्तव्वो, असंखेज्जवासाउएसु णवुंसयवेदुदयाभावादो । ते उ-पम्म - सुक्कलेस्सियणवुंसयवेदोदइल्लतिरिक्खमणुस्समिच्छाइट्ठि - सासणे अस्सिदूण देवगइ - वे उव्वियसरीरदुगाणं णिरंतरो बंधो वक्तव्वो । चाहिये, क्योंकि, आयुबन्धके वशसे सम्यग्दृष्टियों की नारकियों में उत्पत्ति देखी जाती है । नारका, नरकगतिद्विक और स्त्रीवेदका सर्वत्र पुरुषवेदके समान परोदयसे बन्ध होता है । नपुंसक वेदका स्वोदय से बन्ध होता है । एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारणका स्वोदय- परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, इन उक्त स्थानों में तथा इनके प्रतिपक्ष स्थानोंमें नपुंसकवेदका उदय देखा जाता है। तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका सान्तर निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, तेज व वायु कायिक तथा सप्तम पृथिवीके नारकियोंमें मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि इन दोनों ही गुणस्थानों में निरन्तर बन्ध पाया जाता है । मनुष्यगति और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीका मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में सान्तरनिरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, आनतादिक देवामेंसे नपुंसकवेदोदय युक्त मनुष्यों में उत्पन्न हुए तथा तीर्थकर प्रकृतिकी सत्ताके साथ नारकियोंमें उत्पन्न हुए मिथ्या दृष्टियों के निरन्तर बन्ध पाया जाता है । औदारिकशरीर और औदारिकशरीरांगोपांगका मिथ्यादाष्टे और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें सनत्कुमारादि देव व नारकियोंका आश्रयकर निरन्तर बध होता है । अन्यत्र सान्तर बन्ध कहना चाहिये, क्योंकि, असंख्यातवर्षायुष्कों में नपुंसकवेदके उदयका अभाव है । तेज, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले नपुंसक वेदोदय युक्त तिर्यच व मनुष्य मिथ्यादृष्टि एवं सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंका आश्रयकर देवगतिद्विक ओर वैuresशरीरद्विकका निरन्तर बन्ध कहना चाहिये । Jain Education International २ प्रति सन्नः" इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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