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________________ २२८ ] छक्खंडागमे बंधसामित्तविचओ [३, १५५. वेद-हुंडसंठाणाणं पुव्वं बंधो पच्छा उदओ वोच्छिज्जदि, मिच्छाइट्ठि असंजदसम्मादिट्ठीसु कमेण बंधोदयवच्छेददंसणादो । अवसेसासु एसो विचारो णत्थि, बंधस्सेकस्सेव दंसणादो । मिच्छत्तस्स सोदण, णवुंसयवेद-हुंडसंठाणाणं' सोदय - परोदरण, अवसेसाणं परोदएण बंधो । मिच्छत्तस्स णिरंतरो । अवसेसाणं पयडीणं सांतरो, बंधगद्धगयसंखाणियमाणुवलंभादो । पच्चया सुगमा । णवरि एइंदिय - आदाव - थावराणं णवुंसयवेदपच्चओ णत्थि त्ति दुग्गममेयं संभरेदव्वं । एदंदियजादि - आदाव थावराणि तिरिक्खगइसंजुत्तं, सेसाओ तिरिक्ख-मणुसगइसंजुत्तं बज्झति । एइंदिय-आदाव - थावराणं देवा सामी । सेसाणं देव णेरइया । बंधद्धाणं बंधविणट्ठाणं च सुगमं । मिच्छत्तस्स बंधो चउव्विहो । सेसाणं सादि - अद्भुवा । तित्थयरस्स बंधोदयवोच्छेदविचारो णत्थि, बंधअइक्कियादो । परोदओ बंधो, सजोगिभडास्यं मोत्तूण तित्थयरस्सण्णत्थुदयाभावादो । णिरंतरो बंधो, एगसमएण बंधुवरमा वे दोनों पाये नहीं जाते । नपुंसकवेद और हुण्डसंस्थानका पूर्वमें बन्ध और पश्चात् उदय व्युच्छिन्न होता है, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें क्रमसे उनके बन्ध और उदयका व्युच्छेद देखा जाता है । शेष प्रकृतियों में यह विचार नहीं है, क्योंकि, उनका केवल एक बन्ध ही देखा जाता है । मिथ्यात्वका स्वोदयसे, नपुंसकवेद व हुण्डसंस्थानका स्वोदय- परोदय से, तथा शेष प्रकृतियोंका परोदयसे बन्ध होता है । मिथ्यात्वका निरन्तर बन्ध होता है । शेष प्रकृतियाँका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि बन्धककालमें उनकी संख्याका नियम पाया नहीं जाता । प्रत्यय सुगम हैं । विशेष इतना है कि एकेन्द्रियजाति, आताप और स्थावरका नपुंसक वेद प्रत्यय नहीं है, इस दुर्गम बातका स्मरण रखना चाहिये । एकेन्द्रियजाति, आताप और स्थावर प्रकृतियां तिर्यग्गति से संयुक्त और शेष प्रकृतियां तिर्यग्गति व मनुष्यगति से संयुक्त बंधती हैं। एकेन्द्रियजाति, आताप और स्थावर प्रकृतियोंके देव स्वामी हैं। शेष प्रकृतियोंके देव व नारकी स्वामी हैं । बन्धाध्वान और बन्धविनष्टस्थान सुगम हैं । मिथ्यात्वका गन्ध चारों प्रकारका होता है। शेष प्रकृतियोंका सादि व अध्रुव बन्ध होता है । तीर्थंकर प्रकृति बन्ध व उदयके व्युच्छेदका विचार नहीं है, क्योंकि, उसका एक बन्ध ही होता है । परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, सयोगी भट्टारकको छोड़कर अन्यत्र तीर्थंकर प्रकृति के उदयका अभाव है । निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे १ अप्रतौ 'मित्तस्स णवंसयवेद सोदएण इंडसठाणाणं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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