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________________ ३, २०८. ] गाणमग्गणाए बंधसामित्तं [ २८१ एदासिं बंधोदयाणमक्कमेण वृत्तिविरोहादो । पंचदंसणावरणीय - सादासाद-सोलसकसायअणोकसाय - तिरिक्ख- मणुसाउ-तिरिक्ख- मणुसगइ - ओरालिय सरीर - पंचसंठाण - ओरालियसरीरअंगोवंग-पंचसंघडण-तिरिक्ख - मणुसगइपाओग्गाणुपुवी - उववाद - परघाद- उस्सास-उज्जीवदोविहायगइ-पत्तेय सरीर-सुभग- दुभंग-सुस्सर दुस्सर - आदेज्ज - अणादेज्ज - जसकित्ति-अजसकित्तिणीचागोदाणं सोदय-परोदओ बंधो, दोहि' वि पयारेहि बंधविरोहाभावादो । पंचिंदिय-तसबादर-पज्जत्ताणं मदि-सुदअण्णाणिमिच्छाइट्ठीसु सोदय- परोदओ बंधे । सासणसम्माइट्ठीसु सोदओ चेव, एदासिं पडिवक्खपयडीणं तत्थुदयाभावादो । पंचणाणावरणीय-णवदंसणावरणीय - सोलसकसाय-भय- दुगुंछा - तिरिक्ख - मणुस - देवाउतेजा-कम्मइयसरीर-वण्ण-गंध-रस- फास - अगुरुवलहुअ - उवघाद - णिमिण-पंचंतराइयाणं णिरंतरो बंधो, एगसमइयबंधाणुवलंभादो । सादासाद- पंचणोकसाय- पंचसंठाण-पंच संघडण - उज्जोवअप्पसत्थविहायगइ-थिराथिर - सुभासुभ- दुभग- दुस्सरे अणादेज्ज- अजसकित्तीणं सांतरा बंधो, एग प्रकृतियोंके बन्ध व उदयके एक साथ रहनेका विरोध है। पांच दर्शनावरणीय, साता व असातावेदनीय, सोलह कषाय, आठ नोकषाय, तिर्यगायु, मनुष्यायु, तिर्यग्गति, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, पांच संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, पांच संहनन, तिर्यग्गति व मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, उपघात, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, दो विहायोगतियां, प्रत्येकशरीर, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्वर, आदेय, अनादेय, यशकीर्ति, अयशकीर्ति और नीचगोत्रका स्वोदय- परोदय बन्ध होता है, क्योंकि, दोनों ही प्रकारोंसे उनके बन्ध होनेमें कोई विरोध नहीं है | पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर और पर्याप्तका मति व श्रुत अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों में स्वोदय-परोदय बन्ध होता है । सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें स्वोदय ही बन्ध होता है, क्योंकि, इनकी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका वहां उदयाभाव है । पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यगायु, मनुष्यायु, देवायु, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तरायका निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, इनका एक समयिक बन्ध नहीं पाया जाता । साता व असाता वेदनीय, पांच नोकषाय, पांच संस्थान, पांच संहनन, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और यशकीर्तिका सान्तर बन्ध होता है, क्योंकि, एक समयसे भी इनका बन्धविश्राम देखा १ प्रतिषु ' हि दोहि ' इति पाठः । ७. नं. ३६. Jain Education International २ अप्रतौ ' सुस्सर' इति पाठः । , For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001402
Book TitleShatkhandagama Pustak 08
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1947
Total Pages458
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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